SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 593
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मघोषगच्छ का संक्षिप्त इतिहास पूर्वमध्ययुग में श्वेताम्बर परम्परा में चन्द्रकुल का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। इस कुल से समय-समय पर अनेक शाखायें और प्रशाखायें निकलीं जो विभिन्न गच्छों के रूप में अस्तित्व में आयीं । ई० सन् की दसवीं शताब्दी के आस-पास चन्द्रगच्छ की एक शाखा राज़गच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुई । इस गच्छ में अभयदेवसूरि, वादीन्द्र धर्मघोषसूरि आदि प्रखर विद्वान् एवं प्रभावक आचार्य हुए । वादीन्द्र धर्मधोषसूरि की शिष्यसन्तति धर्मघोषगच्छ के नाम से विख्यात हुई । इस गच्छ में कई प्रभावक सूरिवर हुए हैं , जिन्होंने लगभग ५०० वर्षों तक अपनी साहित्योपासना, तीर्थोद्धार, नूतन जिनालयों के निर्माण एवं जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा आदि द्वारा मध्ययुग में श्वेताम्बर श्रमण परम्परा को चिरस्थायित्य प्रदान करने में बहुमूल्य योगदान दिया। धर्मघोषगच्छ के इतिहास के अध्ययन के स्रोत के रूप में साहित्यिक और अभिलेखीय दोनों प्रकार के साक्ष्य उपलब्ध हैं। साहित्यिक साक्ष्यों में ग्रन्थ प्रशस्तियों तथा प्रतिलिपि प्रशस्तियों के साथ-साथ राजगच्छ की पट्टावली में भी इस गच्छ की चर्चा है। अभिलेखीय साक्ष्यों के अन्तर्गत वि० सं० १३०३ से वि० सं० १६९१ तक के लगभग २०० ऐसे अभिलेख मिले हैं जो तीर्थङ्कर प्रतिमाओं तथा जिनालयों के स्तंभ आदि पर उत्कीर्ण हैं और जिनमें इस गच्छ का उल्लेख है। इनका अलग अलग विवरण इस प्रकार है साहित्यिक साक्ष्य - साहित्यिक साक्ष्यों के अन्तर्गत मूल प्रशस्तियां तथा प्रतिलिपि प्रशस्तिया प्रमुख हैं। मूल प्रशस्तियां ग्रन्थकर्ता द्वारा रचना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003614
Book TitleJain Shwetambar Gaccho ka Sankshipta Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherOmkarsuri Gyanmandir Surat
Publication Year2009
Total Pages714
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy