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जैत्रसिंह चित्तौड़ से तपाबिरुद प्राप्त किया। तब से यह गच्छ पृथक् गच्छ कहलाता है। इस गच्छ के अभिलेखीय और साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर भर्तृपुरीयशाखा, धारणपद्रीयशाखा, चतुर्दशीपक्षशाखा, चन्द्रसामीयशाखा, सलषणपुराशाखा, कम्बोइयाशाखा, अष्टापदशाखा, सार्दूलशाखा आदि का . भी पता चलता है। अनेक लेखन प्रशस्तियाँ भी प्राप्त होती हैं । संवत् १२२५ से १५९१ तक ११९ मूर्तिलेख तथा शाखाओं के संवत् १४०० से लेकर १५८२ तक २५ लेख प्राप्त होते हैं।
चतुर्दशीयपक्ष भी चैत्रगच्छ की ही एक शाखा है। जिसके १५१० से लेकर १५४७ तक २५ लेख प्राप्त होते हैं। सलषणपुराशाखा भी इसकी शाखा मानी जाती है। ११. जालिहरगच्छ - विद्याधरकुल की द्वितीय शाखा जालिहर शाखा मानी जाती है। जो कि जाल्योधर स्थान से विकसित हुई है। बालचन्द्रसूरिनन्दीदुर्गवृत्ति (संवत् १२२६), देवप्रभसूरि-पद्मप्रभचरित्र (संवत् १५२४) भी प्राप्त हैं। विक्रम संवत् १२१३ से १३९३ तक के प्रतिमालेख प्राप्त होते हैं। १२. जीरापल्लीगच्छ - लेखक की मान्यतानुसार इससे ही पूर्णिमागच्छ, आगमिकगच्छ, अंचलगच्छ, पिप्पलगच्छ और बृहद्गच्छ अस्तित्व में आए। बृहद्गच्छ गुर्वावली (१६वीं सदी) के अनुसार बृहद्गच्छ से उद्भुत २५ शाखाओं में से जीरापल्लीगच्छ भी अस्तित्व में आया। जीरापल्लीगच्छ, जीरावला नामक राजस्थान के गाँव से उत्पन्न हुआ और देवचन्द्रसूरि के प्रशिष्य श्री रामचन्द्रसूरि इस गच्छ के प्रवर्तक आचार्य माने जाते हैं। साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों में १५वीं शताब्दी से १७वीं शताब्दी तक इनके उल्लेख प्राप्त होते रहते हैं। संवत् १४०३ से १५७२ तक २७ लेख प्राप्त होते हैं। १३. थारापद्रगच्छ - इस गच्छ का उद्भव थारापद्र (थराद, बनासकांठा) नामक गाँव से हुआ। इस गच्छ के प्रवर्तक कौन थे? इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता है। किन्तु, ११वीं सदी के प्रारम्भ में पूर्णभद्रसूरि ने चन्द्रकुल
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