SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सन्निधि में वाचनाएँ हुई। क्रमश: पाटलीपुत्र, कुमारीपर्वत, मथुरा एवं वल्लभी में दो, इस प्रकार कुल पाँच वाचनाएँ हुई। प्रथम वाचना प्रथम वाचना परमात्मा महावीर के निर्वाण के 160 वर्ष बाद हुई। पाटलीपुत्र में भयंकर दुष्काल पड़ा। उस समय कई मुनि तो काल कवलित हो गये और अवशिष्ट मुनि समुद्र के तटवर्ती प्रदेशों की ओर चले गये। अकाल की समाप्ति पर जब वे पुनः लौटे तो लगा कि उनका आगम ज्ञान विस्मृत हो गया है और कहीं-कहीं एक ही आगम में अलग-अलग मुनियों द्वारा पाठभेद हो गया है। तब उस युग के प्रमुख आचार्यों ने पाटलीपुत्र में एकत्र होकर आगम ज्ञान को सुरक्षित एवं व्यवस्थित करने का प्रयास किया । यह प्रयास प्रथम वाचना" के रूप में संबोधित किया गया । ग्यारह अंग तो व्यवस्थित हो गये परन्तु दृष्टिवाद एवं पूर्व साहित्य का विशिष्ट विद्वान उपस्थित न होने से उसके लिये समस्या उपस्थित हुई । दृष्टिवाद के एकमात्र विशिष्ट विद्वान् भद्रबाहु स्वामी उस समय नेपाल में महाप्राण ध्यान की साधना कर रहे थे। संघ के प्रार्थनायुक्त निवेदन पर उन्होंने ध्यान में से कुछ समय वाचना हेतु देना स्वीकार किया । महामुनि स्थूलिभद्र उनसे परिश्रम और पुरुषार्थ पूर्वक वांचना लेने लगे। दश पूर्व तक अर्थ सहित उनकी वांचना हुई । ग्यारहवें पूर्व की वांचना चल रही थी, उस समय उनकी यक्षा आदि बहिनें दर्शन हेतु आई । अपनी बहिनों को चमत्कृत करने के लिये उन्होंने विद्या से सिंह रूप बना दिया । " इस क्रिया से भद्रबाहु स्वामी नाराज हो गये और उन्होंने आगे की याचना देने से इन्कार कर दिया। संघ एवं स्थूलिभद्र के अत्यन्त आग्रह करने पर उन्होंने मात्र आगे के चार पूर्वों की मूल वाचना दी परन्तु अर्थ नहीं बताया। वे शाब्दिक दृष्टि से भले ही चौदह पूर्वधर हुए, पर अर्थ की दृष्टि से दशपूर्वी ही रहे ।" इस प्रकार इस वाचना में मात्र एकादश अंग ही व्यवस्थित हुए । दृष्टिवाद नामक महत्त्वपूर्ण अंग एवं उसके अन्तर्निहित पूर्व साहित्य को पूर्णत: सुरक्षित नहीं किया जा सका। मात्र दृष्टिवाद की विषयवस्तु लेकर अंगबाह्य ग्रन्थ सर्जित होने लगे । 85 द्वितीय वाचना भगवान् महावीर के निर्वाण के लगभग 300 वर्ष बाद उड़ीसा के कुमारीपर्वत 56 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy