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________________ है। इस बात का महत्त्वपूर्ण प्रमाण शब्दों में मध्यवर्ती व्यंजनों की यथास्थिति होना है। वैसे यह पीड़ा के साथ स्वीकार करना चाहिये कि मध्यकालीन प्राकृत व्याकरणकारों द्वारा अर्धमागधी के लिये कोई विशिष्ट व्याकरण लिखा नहीं गया । महाराष्ट्री प्राकृत के जो नियम थे, वे ही नियम अर्धमागधी के लिये लागू कर दिये गये । परिणाम यह हुआ कि आगमों की प्राचीन हस्तप्रतों में जहाँ-जहाँ पर भी पाली के समान प्रयोग मिलते थे, उन्हें क्षतियुक्त मानकर उनके बदले में महाराष्ट्री की शब्दावली को ही अपनाया गया । उदाहरण के लिये प्रो. हर्मन कोबी तथा ब्रिंग द्वारा सम्पादित आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के कतिपय पाठ प्रस्तुत है अध्याय का पेरा नं. 1.2.3.2 1.4.4.1 1.1.5.7 1.9.4.1 1.9.2.15 - याकोबी संस्करण लंडन 1882 ए. डी. अकुतोभयं परितावं एते ओमोदरियं अधोवियडे Jain Education International ब्रिंग संस्करण लिप्जिंग 1910 प्रयोगों से स्पष्ट है कि प्रो. हर्मन जेकोबी को प्राचीन हस्तलिखित प्रतों में जो पाठ मिला है, उसे वैसा ही रखा है और जो पाठ पाली भाषा के समान मिले हैं, उन्हें भी महाराष्ट्री प्राकृत के अनुरूप न बदल कर वैसे ही रखे हैं। जबकि शुक्रिंग महोदय के समक्ष प्रो. हर्मन जेकोबी का संस्करण मौजूद होते हुए भी उन्होंने पाली भाषा से साम्य रखने वाले सारे पाठों को महाराष्ट्री प्राकृत में बदल दिया है। अकुओभयं परियावं एए ओमोयरियं अहोविडे इससे यह स्पष्ट है कि मूल अर्धमागधी पाली भाषा से मिलती-जुलती थी, परन्तु परवर्ती काल में इसका स्वरूप बदल गया । आगमों की वाचनाएँ तीर्थंकर परमात्मा द्वारा प्ररूपित अर्थरूप वाणी गणधरों एवं स्थविरों द्वारा संकलित की गई। परन्तु स्मृति कमजोर होने के कारण वह सूत्रागम भी पूर्णत: जब सुरक्षित नहीं रहा तो समय-समय पर योग्य, ज्ञानी, आगमज्ञ आचार्यों की जैन आगम साहित्य : एक अनुशीलन / 55 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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