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भक्षण से मोक्ष की कल्पना कैसे युक्तिसंगत हो सकती है?
जैनदर्शन एवं उस परम्परा के समस्त तीर्थंकर मात्र आत्म शोधन और आत्मशुद्धि में ही विश्वास करते है। आत्मशुद्धि का मुख्य आधार है - भावशुद्धि । भावशुद्धि का दूसरा नाम ही मोक्ष है।
सूत्रकृतांग में वर्णित समस्त वाद एकांगी दृष्टिकोण है। जैनदर्शन ने इन सभी एकान्तवादों का समाधान स्याद्वाद के अन्तर्गत ढूँढा है। जैनदर्शन के अनुसार पदार्थ शाश्वत है पर उसका आकार-प्रकार अशाश्वत है। इस मान्यता की स्वीकृति में ही विश्व की समस्त व्यवस्थाएँ व्यवस्थित हो सकती है। इसे जैनदर्शन पर्याय परिणमन के रूप में स्वीकार करता है। पर्याय-परिणमन का सिद्धान्त 'उप्पमेई वा, विगमेइ वा धुवेई वा' का ही पर्यायवाची है।
वादों के गम्भीर वर्णन विश्लेषण से इस ग्रन्थ की उपयोगिता सभी पाठकों एवं तटस्थ अध्येताओं के लिए बढ़ गयी है पर आगमों का मुख्य लक्ष्य, जो कि आत्मशुद्धि है, वह इसके प्रत्येक अध्ययन ही क्यों, बल्कि प्रत्येक सूत्र में नजर आता है।
श्रमण का जीवन, उसकी आहारचर्या का विशद विश्लेषण इस ग्रन्थ में संग्रहित है। संयमी जीवन के प्रारम्भिक क्षणों में ही इस ग्रन्थ के पठन की सूचना है ताकि उसी अनुसार जीवन जीने की प्रेरणा मिले और आत्मा अपने जन्म जन्मान्तर के बन्धनों को तोड़ सके।
सांसारिक आकर्षण में अनादिकाल से हमारी आत्मा उलझी हुई है। उनसे मुक्त होना आसान नहीं है। उसके लिए सतत उसी प्रकार का वातावरण चाहिए। यह आगम ग्रन्थ इसी की पूर्ति करता है। इसमें ऐसे अनेक सूत्र है, जो आत्मा को वैराग्यवासित करते है। नरक का वर्णन पत्थर को भी कंपित कर सकता है। हम अपने जीवन में पलभर की पीड़ा से तिलमिला उठते है जबकि नरक के जीव हजारों-लाखों वर्षों तक प्रतिपल दारूण कष्टों को भोगते है। वहाँ पलभर के लिए भी अगर शान्ति मिलती है, तो वह भी एक उपलब्धि के रूप में रेखांकित होती है। जैसे- तीर्थंकर के कल्याणक प्रसंग में पलभर की शान्ति का वर्णन शास्त्रों में उल्लिखित है।
नि:सन्देह सूत्रकृतांग आगम अपने आप में एक सम्पूर्ण शास्त्र है। इसमें जहाँ अध्यात्म है, वहीं सामाजिक जीवन की व्यवस्था को सुव्यवस्थित चलानेवाले मुद्दे भी है। इसमें जहाँ जैनदर्शन की प्रमुख मान्यताओं का वर्णन-विश्लेषण है,
उपसंहार / 407
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