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________________ से अतीत है। उसने यह सोचा कि मैं किस प्रकार लोगों में पैयूँ ? तब वह नाम और रूप में लोगों में प्रविष्ट हुआ। जडचैतन्याद्वैतवाद - इसके अनुसार जगत् की उत्पत्ति जीव और अजीव इन दोनों गुणों के मिश्रण से हुई है। जडाद्वैतवाद और चैतन्याद्वैतवाद ये दोनों कारणानुरूप कार्योत्पत्ति के सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करते। द्वैतवाद द्वैतवादी दर्शन जड और चैतन्य दोनों का स्वतन्त्र अस्तित्व मानते है। इनके अनुसार जड से चैतन्य या चैतन्य से जड उत्पन्न नहीं होता। कारण के अनुरूप ही कार्य का प्रादुर्भाव होता है। जैनदृष्टि के अनुसार विश्व एक शिल्पगृह है। उसकी व्यवस्था स्वयं उसी में समाविष्ट नियमों द्वारा होती है। ये नियम जीव और अजीव के विविध जातीय संयोग से स्वत: निष्पन्न है। जैनदर्शन के अनुसार सृष्टि रचना की मूल कल्पना ही भ्रमपूर्ण है। उसने जगत् रचना के सन्दर्भ में प्रचलित मिथ्या धारणाओं का विविध अपेक्षाओं से तार्किक निराकरण प्रस्तुत किया है। भगवती सूत्र में वर्णित रोह तथा स्कंदक के सृष्टि विषयक प्रश्न तथा भगवान महावीर के उत्तर से भी जगत् का अनादित्व सिद्ध होता है। रोह ने जब यह प्रश्न किया कि लोक तथा अलोक इन दोनों में पहले कौन बना तथा पीछे कौन बना, तब भगवान महावीर ने बताया कि लोक, अलोक में पूर्व-पश्चात् का क्रम नहीं है। ये दोनों पहले भी थे और आगे भी होंगे। इन दोनों में शाश्वतभाव है। सृष्टि का यह चक्र पौर्वापर्य सम्बन्ध में मुक्त है। प्रस्तुत समाधान से यही ध्वनित होता है कि सृष्टि का कोई आदिकर्ता नहीं है।' जगत के आदि अनादि के संबंध में स्कंदक की जिज्ञासा भी महत्त्वपूर्ण है। उसने महावीर से पूछा- 'भगवन् ! लोक सान्त है या अनन्त ?' भगवान ने कहा - द्रव्यत: तथा क्षेत्रत: लोक सान्त है। कालत: तथा भावत: लोक अनन्त है। यहाँ काल की अपेक्षा से किया गया विश्लेषण जगतकर्ता का निषेध करने के साथ जगत् की अनादि विद्यमानता को भी सिद्ध करता है। वास्तव में यह जगत् सदाकाल से है और सदाकाल तक विद्यमान रहेगा। जमालि ने भी सृष्टि की शाश्वतता और अशाश्वतता के सन्दर्भ में प्रश्न किया है, जिसके समाधान में महावीर ने अपेक्षा से लोक (सृष्टि) को शाश्वत 384 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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