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________________ अशोक का पिता बिन्दुसार भी आजीवक सम्प्रदाय का आदर करता था। छठी शताब्दी में हुए वराहमिहिर के ग्रन्थ में भी आजीवक भिक्षुओं का उल्लेख मिलता है। बाद में धीरे-धीरे इस सम्प्रदाय का ह्रास होते-होते अन्त में किसी भारतीय सम्प्रदाय में विलयन हो गया। फिर तो यहाँ तक हआ कि आजीवक सम्प्रदाय, त्रैराशिकमत और दिगम्बर परम्परा इन तीनों के बीच कोई भेद ही नहीं रहा। शीलांकदेव व अभयदेव जैसे विद्वान वृत्तिकार तक इनकी भिन्नता न बता सके। कोशकार हलायुध (10वीं शताब्दी) ने इन तीनों को पर्यायवाची माना है। 13वीं शताब्दी के कुछ शिलालेखों में ये तीनों अभिन्न रूप से उल्लेिखित है।' सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में नियतिवाद इस प्रकार वर्णित हुआ है 'कुछ (नियतिवादी) दार्शनिक यह प्रतिपादित करते है कि संसार में सभी जीव पृथक्-पृथक् है, यह युक्ति से सिद्ध होता है तथा वे जीव पृथक्-पृथक दु:ख भोगते है और पृथक्-पृथक् ही अपने स्थान से दूसरे स्थान पर च्युत होते है, मरते है। ___ यह दुःख स्वयंकृत नहीं होता, अन्यकृत भी नहीं होता। सैद्धिक (निर्वाण) सुख हो अथवा असैद्धिक (सांसारिक) सुख, वह सब नियतिकृत होता है। सभी जीव न स्वकृत सुख-दु:ख का वेदन करते है, न अन्यकृत सुखदु:ख का वेदन करते है। वह सुख-दु:ख सांगतिक-नियतिजनित है, ऐसा किन्हीं (नियतिवादियों) का मत है। इस प्रकार नियतिवाद का प्रतिपादन करने वाले स्वयं अज्ञानी होते हुए भी अपने आपको पण्डित मानते है। कुछ सुख-दु:ख नियत होता है और कुछ अनियत, परन्तु इस सत्य को वे बुद्धिहीन नहीं जानते। इस प्रकार नियतिवादरूप पाश से जकड़े हुए बार-बार नियति को ही (सुखदुःखादि का) कर्ता कहने की धृष्टता करते है। वे साधना मार्ग में प्रवृत्त होने पर भी अपने दु:खों का विमोचन नहीं कर सकते।'' शास्त्रकार ने प्रथम गाथा में 'उववण्णा पुढो जिया' पद के द्वारा आत्मा के सम्बन्ध में नियतिवाद का जो दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है, वह जैन दर्शन सम्मत तथा यथार्थ है। नियतिवादियों के अनुसार संसार में सभी जीव अपना भिन्नभिन्न अस्तित्व रखते है। यह बात प्रत्यक्ष, अनुमान तथा युक्ति से भी सिद्ध है क्योंकि जब तक आत्मा पृथक्-पृथक नहीं मानी जायेगी, तब तक जीव स्वयंकृत कर्म फलों का सुख-दु:ख नहीं भोग सकेगा और न ही सुख-दु:ख का वेदन करने सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का दार्शनिक विश्लेषण / 269 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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