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4. अन्योन्याभाव - वस्तु का पारस्परिक अभाव ।
जैनदर्शन के अनुसार यहाँ प्रध्वंसाभाव मानना चाहिए। प्रध्वंसाभाव में कारकों का व्यापार होता ही है। क्योंकि वह वस्तुतः पदार्थ का पर्याय यानी अवस्था - विशेष है, अभावमात्र नहीं है। वह अवस्था - विशेष भाव-रूप है, क्योंकि वह पूर्व अवस्था को नष्ट करके उत्पन्न होती है, अतः जो कपाल आदि की उत्पत्ति है, वही घट आदि का विनाश है, जो कारणवश कभी-कभी होता है । इस कारण वह सहेतुक भी है। इस प्रकार क्षणभंगवाद विचारसंगत न होने से वस्तु परिणामी नित्य है, यह पक्ष मानना ही ठीक है ।
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जैनदर्शन के अनुसार आत्मा परिणामी, ज्ञान का आधार, दूसरे भावों में जानेवाला और भूतों से कथंचित् भिन्न तथा शरीर के साथ मिलकर रहने से वह शरीर से कथंचित् अभिन्न भी है । वह आत्मा नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवादि गति में कारण रूप कर्मों के द्वारा भिन्न-भिन्न रूपों में बदलता रहता है, इसलिए वह सहेतुक भी है। आत्मा के निज स्वरूप का कभी नाश नहीं होता इसलिए वह नित्य तथा निर्हेतुक भी है। 14
इस प्रकार शरीर से भिन्न आत्मा सिद्ध होने पर भी उसे चतुर्धातुओं से निर्मित अथवा पंचस्कंधों का संघात मानते हुए क्षणिक मानना मिथ्या - आग्रह ही है।
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सन्दर्भ एवं टिप्पणी
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अ). सूत्रकृतांग चूर्णि पृ. च) सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र सूयगडो - 1/1/1/17-18 सूत्रकृतांग चूर्णि पृ. 29
दीघनिकाय 10/3/20 पञ्चक्खन्धो - रूपक्खन्धो, वेदनाक्खन्धो, सञ्ञाक्खंधो, संड्खारक्खंधो, विञ्ञाणक्खंधो त्ति । तत्थ यं किंचि सीतादि हि रूपन्न लक्खण धम्मजातं सत्वं तं एकतो कत्वा रूपक्खंधो ति वेदितव्यं ।....... यं किंचि वेदयति लक्खणं वेदनाक्खंधो वेदितव्यो यकिंचि संजानन लक्खणं...... सञ्ञखंधो वेदितव्यो ।
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. सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र 25
(अ) प्रमाणवार्तिक- अर्थक्रियासमर्थं यत् तदत्र परमार्थसत् ।
(ब) न्यायबिन्दु - अर्थक्रियासामर्थ्य-लक्षणत्वादवस्तुत: ।
सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का दार्शनिक विश्लेषण / 267
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