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सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का .
दार्शनिक विश्लेषण
1. पञ्चमहाभूतवाद सूत्रकृतांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन में विभिन्न मतवादियों के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है। वादों के इस क्रम में सर्वप्रथम पञ्चमहाभूतवाद का स्वरूप बताया गया है, जो इस प्रकार है -
'इस लोक में पंचमहाभूत है, ऐसा किन्हीं ने कहा है। (वे पंचमहाभूत है) पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश।
इन पाँच महाभूतों से एक आत्मा उत्पन्न होता है, ऐसा (लोकायतिक) कहते है। इन पाँचों के नष्ट होने पर देही (आत्मा) का नाश होता है।'
सूत्रकार द्वारा प्रयुक्त ‘एगेसिं' पद से चूर्णिकार ने पंचभूतवादियों का ग्रहण किया है। वृत्तिकार ने इस शब्द से बार्हस्पत्यमतानुसारी (लोकयतिक) भूतवादियों का ग्रहण किया है।
आत्मा के अस्तित्व का निषेध करनेवाले दार्शनिक भूतवादी कहलाते है। यहाँ वृत्तिकार ने एक प्रश्न उठाया है कि सांख्य, वैशेषिक आदि भी पंचमहाभूतों का सद्भाव मानते है, फिर प्रस्तुत श्लोक में प्रतिपादित पंचमहाभूतों के कथन को लोकायतिक मत की अपेक्षा से ही क्यों मानना चाहिए ? इस प्रश्न का समाधान वे स्वयं देते है कि सांख्य प्रधान से महान, महान से अहंकार और अहंकार से षोडश पदार्थों की उत्पत्ति को मानता है। वैशेषिक काल, दिग, आत्मा आदि तथा अन्य वस्तु-समूह को भी मानता है। परन्तु लोकायतिक (चार्वाक) पाँचभूतों
सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का दार्शनिक विश्लेषण / 223
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