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आया था, वहाँ जाने लगा। तब गौतम ने कहा- 'उदक ! तुम बिना कहे ही चले जा रहे हो ? श्रेष्ठ पुरुषों का यह आचार है कि जो व्यक्ति तथारूप श्रमण या ब्राह्मण से एक भी आर्य, धार्मिक, हितकर, सुवचन सुनकर हृदय में अवधारण करता है, वह अपने हितैषी उपदेशक के प्रति कृतज्ञ हो उपकार मानता है, उनके प्रति नतमस्तक हो विनय करता है, उनकी गुणगाथा करता है और यह मानता है कि इन्हीं से मुझे योगक्षेम रूप पद का उपदेश मिला है। हालाँकि पूज्यनीय पुरुष अपनी कीर्ति या प्रतिष्ठा नहीं चाहते, परन्तु उस कृतज्ञ साधक का यह कर्तव्य है कि वह उसका बहुमान करे। तुम कृतज्ञता ज्ञापित किये बिना यों ही चले जा रहे हो? क्या यह उचित है ?'' ___ गौतम स्वामी की इस उपालम्भ भरी टकोर ने उदक के मन मस्तिष्क के सारे रोशनदान उद्घाटित कर दिये, भीतर प्रज्ञा तथा विवेक की रोशनी खिल उठी। उसने अपने अपराध की क्षमायाचना करते हुये कहा- 'भगवन् ! आपसे ही मैंने परमार्थ के रहस्य को प्राप्त किया है। ये पद वस्तुत: आज तक मेरे लिये अश्रुत, अदृष्ट, अस्मृत, अविज्ञात, अनियूढ, अव्याकृत, अव्यवच्छिन्न, अनि:सृष्ट, अनुपधारित थे। भदन्त ! अब मैं इन पर श्रद्धा और प्रतीति करता हूँ। मैं चाहता हूँ कि चातुर्याम धर्म से सप्रतिक्रमण पंचयाम धर्म को स्वीकार करूँ। पार्श्व की परम्परा से अभिनिष्क्रमण कर महावीर की परम्परा स्वीकार करूँ।।
भ. गौतम उदक को श्रमण महावीर की शरण में ले जाते है, जहाँ वह पार्श्वपरम्परा से महावीर की परम्परा में दीक्षित हो जाता है।
प्रस्तुत घटना यह दिग्दर्शन कराती है कि उस समय में भी भ. पार्श्वनाथ की परम्परा महावीर की परम्परा से पृथक् थी, जो कालान्तर में महावीर की परम्परा में विलीन हो गयी।
उदक का गौतम के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित किये बिना ही चलने के लिये तत्पर होना भी यह संकेत देता है कि पार्थापत्यीय महावीर या गौतम के साथ श्रद्धा एवं विनयपूर्वक प्रतिपत्ति नहीं करते थे।
सन्दर्भ एवं टिप्पणी 1. (अ) सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा - 201-202
(ब) सूत्रकृताग वृत्ति पत्र - 406-407 2. (अ) सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा - 203/204
सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन / 221
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