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है। इन पाँचों के संयोग से ही आत्मा की उत्पत्ति होती है। ये किसी के द्वारा निर्मित अथवा निर्मापित नहीं है अथवा कृत या कृत्रिम नहीं है। ये आदि-अन्त रहित, स्वतन्त्र-शाश्वत है एवं स्वयं समस्त क्रियाएँ करने वाले है। अत: पुण्यपाप, स्वर्ग-नरक, क्रिया-अक्रिया, आत्मा-परमात्मा आदि वस्तुओं का कोई अस्तित्व नहीं है।
प्रथम तथा द्वितीय पुरुष की मान्यता में इतना ही अन्तर है कि प्रथम तज्जीव तच्छरीरवादी के मत में शरीर तथा जीव एक ही है अर्थात् दोनों में कोई भेद नहीं है जबकि द्वितीय पंचमहाभूतवादी के अनुसार जीव की उत्पत्ति पंचमहाभूतों के संयोग या सम्मिश्रण से होती है।
तृतीय पुरुष ईश्वरकारणवादी तथा आत्माद्वैतवादी है। इनके अनुसार इस जगत में चेतन-अचेतन जितने भी पदार्थ है, सब पुरुषादिक है अर्थात् उन सबका आदि कारण पुरुष या आत्मा है। वे सब पुरुषोत्तरिक है अर्थात् ईश्वर ही उनका संहारकर्ता है या ईश्वर ही सब पदार्थों का कार्य है। समस्त पदार्थ ईश्वर द्वारा रचित, उत्पन्न तथा प्रकाशित है, ईश्वर के ही अनुगामी है और ईश्वर का आधार लेकर टिके हुये है। जगत को ईश्वरकृत सिद्ध करने के लिये ईश्वरवादी अनेक तर्क प्रस्तुत करते है। जैसे- शरीर में उत्पन्न फोड़ा शरीर में ही बढ़ता है, शरीर का ही अनुगामी होता है, शरीर के आधार से ही टिकता है। इसी प्रकार समस्त पदार्थ ईश्वर से उत्पन्न होकर ईश्वर से ही वृद्धिंगत होते है, ईश्वर के ही अनुगामी होते है तथा ईश्वर (आत्मा) का आधार लेकर ही स्थित रहते है। इसी प्रकार अरति (उद्वेग) शरीर से, वल्मीक कीट पृथ्वी से, वृक्ष मिट्टी से, पोखर जल से, पानी का बुदबूद पानी से बढ़ता है, वृद्धि को प्राप्त होता है, अनुगामी बनता है तथा अन्त में उसी में समा जाता है, ठीक उसी प्रकार ईश्वरकर्तृत्ववादियों के अनुसार जगत के समस्त पदार्थ ईश्वर से उत्पन्न हुए है, ईश्वर या आत्मा में ही स्थित है तथा अन्त में ईश्वर में ही लीन हो जाते है। श्रमण निर्ग्रन्थों द्वारा रचा हुआ या कहा हुआ आचारांग, सूत्रकृतांग आदि बारह अंगों में विभक्त ज्ञान का जो पिटारा है, वह मिथ्या है। वह सत्य तथा तथ्य रूप नहीं है। हमारा मत ही सत्य है, यथार्थ है और ऐसी ही शिक्षा वे अपने शिष्यों को भी देते है। ये अपने आग्रह से उसी प्रकार मुक्त नहीं हो पाते है, जैसे पक्षी पिंजरे से। इसी मिथ्या मत में उलझ कर वे नाना प्रकार के पाप कर्म युक्त सावद्य अनुष्ठान द्वारा कामभोगों के लिये आरम्भ करते है। इस प्रकार वे न तो लोक में, न पर लोक
सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन / 177
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