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तथा ध्यान में परमशुक्ल ध्यानी- ये भाव पौण्डरीक होते है।
प्रस्तुत अध्ययन में द्रव्यपौण्डरीक वनस्पतिकाय का तथा भावपौण्डरीक श्रमण का अधिकार है। अथवा औदयिकभाववर्ती वनस्पतिकायिक भावपौण्डरीक तथा सम्यग्दर्शन, चारित्र, ज्ञान, विनयादि आध्यात्मिक वृत्ति से सम्पन्न सुसाधु रूप भावपौण्डीक का वर्णन है।
इस गद्यमय अध्ययन में 72 सूत्र है। प्रथम 12 सूत्रों में भगवान महावीर ने पुष्करिणी में स्थित पौण्डरीक के माध्यम से धर्म, धर्मतीर्थ तथा निर्वाण के महत्त्व को समझाया है।
आप्त पुरुष उस रूपक को कुछ विस्तार से इस प्रकार समझाते है - एक विशाल पुष्करिणी है। वह अगाध जल से परिपूर्ण, गहरी तथा देश-प्रदेशों में उत्तमोत्तम श्वेत कमलों से व्याप्त है। उसके मध्य भाग में विशाल, रमणीय, समस्त कमलों में प्रधान पौण्डीक कमल स्थित है। वह अत्यन्त रूचिकर, दीप्तिमान, मनोज्ञ, विलक्षण रसों से युक्त, कोमल स्पर्शी, उत्तम सुगन्ध से भरपूर है। वह पुष्करिणी उन समस्त श्वेत कमलों तथा प्रधान पौण्डरीक कमल से अत्यन्त मनोहारी, दर्शनीय एवं रमणीय प्रतीत होती है। वहाँ पूर्व दिशा से एक पुरुष आया और पुण्डरीक कमल को देखकर कहा- मैं क्षेत्रज्ञ हूँ, कुशल हूँ, पण्डित हूँ, मेधावी हूँ, अबाल हूँ, मार्गस्थ हूँ, मार्गविद् हूँ, मार्ग की गति एवं पराक्रम का ज्ञाता हूँ। मैं उस कमल को उखाड़कर पा लूँगा।' ऐसा कहकर वह पुरुष उस विशाल पुष्करिणी में उतर जाता है। वह ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता है, त्यों-त्यों गहरे कीचड़ में फँसता जाता है। अब वह उस स्थिति में पहुंच जाता है, जहाँ से न पुन: तट पर आ सकता है, न ही पुण्डरीक कमल तक पहुंच सकता है। वह न इस पार का, न उस पार का, बल्कि उस पुष्करिणी के पंक में पड़ा अत्यन्त कष्ट और क्लेश पाता है।
इसी प्रकार उत्तर, दक्षिण, पश्चिम दिशाओं से भी एक-एक पुरुष आते है, जो अपने से पूर्व कीचड़ में फँसे पुरुष को देखकर उसकी अकुशलता तथा स्वयं निपुणता, चतुरता की बड़ाई करते हुये पुण्डरीक कमल को पाने की इच्छा से उस पुष्करिणी में उतर जाते है और उसी प्रकार अधबीच कीचड़ में फँसकर कष्ट पाते है। इतने में किसी दिशा या विदिशा से एक निस्पृह, राग-द्वेष से रहित, संसार सागर से तिरने का इच्छुक भिक्षु आया। उसने पुष्करिणी के तट पर आकर पुष्करिणी के मध्य स्थित पुण्डरीक कमल तथा फँसे हुए चार पुरुषों को देखा और सोचा कि ये लोग अकुशल, अनिपुण तथा अपण्डित मालूम होते है। इसलिये
सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन / 175
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