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________________ पहल शरीर रूप में परिणत करना।'' उपपात जन्म से पैदा होकर वैक्रिय शरीर को धारण करने वाले देव तथा नारक जीव ही होते है। इन औपपातिक (उपपात जन्मवाले) नारकों के अनपवर्तनीय आयुष्य (जो घटाई न जा सके) का उदय होने से वे प्रभूत काल तक उन नरक भूमियों में असुरों द्वारा विविध रूप से सताये जाते है। द्वितीय उद्देशक के प्रारम्भ में नरक को ‘सासयदुक्खधम्मा' अर्थात् 'शाश्वतदु:ख धर्मा' कहा है अर्थात् सम्पूर्ण आयुपर्यन्त जीव जहाँ निरन्तर, प्रतिपल दु:ख ही पाता है या जीवन क्षय होने तक दुःख देना ही जिसका स्वभाव है। क्योंकि नारकी जीवों को नरक में आँख की पलक झपके उतने समय का भी सुख नहीं है। इस उद्देशक में पूर्वोक्त से कुछ विशेष यातनाओं का निरूपण है तथा समाप्ति में नरक से बचने के उपायों का भी उल्लेख है। नरकपाल नारकी जीवों के हाथ पैरों को बाँधकर तेज धारवाले शस्त्रों से उनका पेट फाड़ देते है। लाठी आदि विविध शस्त्रों के प्रहार से उनके पीठ की चमड़ी भी उधेड़ देते है। उनकी भुजा को मूल से काट देते है। मुँह को फाड़कर उसमें तपते हुए लोहे के बड़े-बड़े गोले डालकर मुँह को जला देते है तथा उन्हें एकान्त में ले जाकर पूर्वजन्मकृत पापों का स्मरण कराते है कि पूर्वजन्म में शराब और माँस का सेवन करने वाले अब गर्मा-गर्म सीसा पीते हुये और अपना ही माँस खाते हुये क्यों घबराते हो ? बिचारे परवश नारकी जीव उन असुरों की किसी भी बात का प्रतिकार नहीं कर पाते। वे नरकपाल कभी तपी हुई गाड़ी में उन्हें जोतते है, तो कभी कीचड़ एवं काँटों से भरी जमीन पर जबरन चलाते है। रुकने पर डण्डे, चाबूक से उन पर तीव्र प्रहार करते है। कभी-कभी सामने से गिरती हुई बड़ी-बड़ी शिलाओं से कुचल दिये जाते है। कभी गेंदाकार में बनी कुम्भी में पकाये जाते है, तो कभी चने की तरह भूने जाते हुए जब उपर उछलते है, तब लोहमयी चोंचवाले काक उन्हें नोचकर खा जाते है। वे नरकपाल उनको हाथी की तरह भार वहन कराते हैं या दो-तीन नारकों को उनकी पीठ पर चढ़ाकर चलाते है। न चलने पर मर्मस्थानों में तीखा नोंकदार शस्त्र चुभोया जाता है। उनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर उन्हें नगरबलि की तरह चारों दिशाओं में फैंक दिया जाता है। कभी सदाजला नामक विषम और दुर्गम नदी में, जिसका पानी रक्त, मवाद एवं क्षार के कारण मैला व पंकिल है, के पिघले हुए तरल लोह के समान अत्यन्त उष्ण जल में तिराया जाता है, तो कभी वैतालिक नामक अत्यन्त सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन / 133 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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