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16) परतंत्रता, (7) भय, (8) शोक, (9) जरा और (10) व्याधि । * प्रस्तुत अध्ययन की प्रथम गाथा में सुधर्मा स्वामी द्वारा पूछे जाने पर श्रमण भगवान महावीर द्वारा नरक के दारुण दुःखों का विस्तार से वर्णन किया गया है। सुधर्मा स्वामी के यह पूछने पर कि - परमात्मन् ! कौन से जीव नरक में क्यों और कैसे जाते है ? इसका समाधान शास्त्रकार दूसरी गाथा में करते है कि जो जीव मन से रौद्र है, कर्म से रौद्र है, भावों तथा वचनों से भी रौद्र है, वह जीव हिताहित की विवेक बुद्धि से रहित, सघन अन्धकारमय, धधकते खैर-अंगारों से भी तीव्र अभितापयुक्त नरक में गिरता है। _ विषयसुख में आसक्त, त्रस तथा स्थावर जीवों की तीव्र हिंसा करने वाले जीवों को इन दु:सह नरक भूमियों में उत्पन्न होते ही भयंकर अनिष्ट शब्द सुनाई देते है- 'यह पापी, महारम्भी, महापरिग्रही, लम्पट निश्चय ही अनेक पापकर्म करके आया है, अत: इसे मुद्गर से मारो, तलवार से काटो, शूल से बींधो, भाले में पीरो दो, इसके टुकड़े-टुकड़े कर दो, आग- भट्टी में झोंक दो।' इन मर्मभेदी शब्दों को सुनकर बिचारा नारक जीव भयातुर होकर वहीं बेहोश हो जाता है। होश आते ही भयविह्वल होकर भागने लगता है कि अब किस दिशा में जाये ? किसकी शरण में जाये ? इस प्रकार वहाँ उत्पन्न होते ही नारक जीव शब्दजन्य, क्षेत्रजन्य तथा परमाधामी असुरकृत भयंकर यातनाओं का शिकार हो जाता है।
प्रथम उद्देशक में नारकों को परमाधार्मिक देवों द्वारा दी जाने वाली यातनाओं की लम्बी श्रृंखला का वर्णन हृदय को कम्पकम्पा देने वाला है। उसकी संक्षिप्त झाँकी इस प्रकार है- जलती हुई अंगारों की राशि तथा जाज्वल्यमान ज्योति (ज्वाला) सहित तप्त भूमि सदृश नरक भूमि पर चलते हुये नारक करुण रूदन करते है। कई बार उन्हें रक्त, मवाद तथा अस्थियों से बहती वैतरणी नदी में कूदने के लिये बाध्य कर दिया जाता है, जिससे उस नदी की उस्तरे के समान तीक्ष्ण धार से नारकों के अंग कट जाते है। उससे उद्विग्न नारक जीव जब नौका पर चढ़ने के लिये आते है, तो नरकपाल उनके गले में कील भोंक देते है। किन्हीं के गले में बड़ी-बड़ी शिलाएँ बाँधकर उन्हें अगाध जलराशि में डूबो देते है। किन्हीं जीवों को अत्यन्त तपी हुई मुर्मुराग्नि में घुमाते तथा पकाते है। इन नरकों में अग्नि की लपटें चारों दिशाओं में निरन्तर प्रज्ज्वलित रहती है। उस धधकती लपटों में नारक जीव जीते जी डाल दिये जाते है, जो मछलियों की तरह तपते, तड़फते आर्तस्वर में रूदन करते है, पर वहाँ उनका कोई रक्षक नहीं होता।
सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन / 131
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