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३१९ ज्ञानसागरसूरि ने सूरत, खंभात, राजनगर (अहमदाबाद), पाटण, राधनपुर, सादड़ी, घाणेराव, सिरोही, पालिताना, जूनागढ़ आदि स्थानों पर विहार किया। वि०सं० १७८२ में ८९ की आयु में खंभात में इनका निधन हुआ।१२।
खरतरगच्छीय देवचन्द्रउपाध्याय से भी आचार्य ज्ञानविमलसूरि का घनिष्ठ सम्बन्ध था। ज्ञानविमलसूरि द्वारा प्रतिष्ठापित कुछ जिनप्रतिमायें प्राप्त हुई हैं, जो वि० सं० १७५१ से लेकर वि०सं० १७६९ तक की हैं। इनका विवरण इस प्रकार है :
चिन्तामणि पार्श्वनाथ जिनालय, शकोपुरा, खंभात में ज्ञानविमलसूरि की चरणपादुका प्रतिष्ठापित है। इस पर वि०सं० १७८४ मार्गशीर्ष वदि ६ बुधवार का लेख उत्कीर्ण है। बुद्धिसागरसूरि ने इस लेख की वाचना दी है, जो निम्नानुसार है :
संवत् १७८४ मार्गसिरवदि ६ दिने बुधवासरे श्रीस्तंभतीर्थबंदिरे श्रीतपागच्छे सुविहितभट्टारक श्री आणंदविमलसूरिपट्टप्रभावकश्रीविजयदानसूरि तत्पट्टे भ० हीरविजयसूरिपट्टे सद..... विजयसेनसूरिपट्टे भ० श्रीविजयदेवसूरिपट्टप्रभावकसकलभ० पुरंदरभ० श्रीविजयप्रभसूरिपट्टे संविज्ञपक्षे भट्टारकप्रभुश्रीज्ञानविमलसूरीश्वरचरणपादुका: शुभं भवतु॥
जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह, भाग २, लेखांक ९११.
ज्ञानविमलसूरि के पट्टधर सौभाग्यसागरसूरि हुए। इनके बारे में इस शाखा की पट्टावली तथा प्रशस्तियों में नामोल्लेख के अलावा अन्य कोई जानकारी नहीं मिलती। खरतरगच्छीय बड़ा जिनालय, तुलापट्टी, कलकत्ता में संरक्षित धातु की एक जिनप्रतिमा पर वि०सं० १७८४ फाल्गुन सुदि ५ का एक लेख उत्कीर्ण है। मुनि कांतिसागर जी ने इस लेख की वाचना दी है, जो इस प्रकार है :
संवत् १७८४ वर्षे फाल्गन सुदि ५ रवौ स्तम्भतीर्थवास्तव्यः अकेशवंछो (उपकेशवंशीय) संघवी जवराजीसुतासंघवी मंगल जी भा संघ बहुतयो श्री स्वयंप्रभ जिनबिम्बं कारितम् मोक्षमानाय तपागच्छ............भ...........सौभाग्यसागरसूरिभिः।।
जैनधातुप्रतिमालेख. भाग १, लेखांक ३२६.
उक्त प्रतिमालेख में प्रतिमाप्रतिष्ठापक के रूप में उल्लिखित तपागच्छीय सौभाग्यसागरसूरि को संविग्नपक्षीय ज्ञानविमलसूरि के पट्टधर सौभाग्यसागरसूरि से समसामयिकता, नामसाम्य और गच्छसाम्य आदि बातों को देखते हुए अभिन्न माना जा सकता है।
सौभाग्यसागरसूरि के पश्चात् सुमतिसागरसूरि ने विमलशाखा का नायकत्त्व ग्रहण किया। इनके समय में ऋषिविमल के शिष्य लक्ष्मीविमल (बाद में विबुधविमलसूरि) ने वि०सं० १७८० में वीसी की रचना की। यह बात इस कृति की प्रशस्ति से ज्ञात होती है:
आकाश (वसु) सागर विधुवर्षे, विजयदशमी जाण रे, गुरु वासर अति मनोहर, वीसी चढी परमाण रे।
ऊपर हम देख चुके हैं कि वि० सं० १७८२ में शाखा प्रवर्तक ज्ञानविमलसूरि का निधन हुआ था। वि०सं० १७८४ में उनके पट्टधर सौभाग्यसागरसूरि द्वारा प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमा प्राप्त हुई है अत: सौभाग्यसागरसूरि के पश्चात् ही सुमतिसागरसूरि ने विमलशाखा का नायकत्त्व ग्रहण किया होगा। यदि पूर्वोक्त वीसी की सूचना को प्रामाणिक मानें तो ऐसी स्थिति
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