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________________ विजयदानसूरि 1 हीरविजयसूरि 1 विजयसेनसूरि ' विजयदेवसूरि 1 विजयप्रभसूरि पत्तन नयर तणे तस पासे, पद श्रीविजयप्रभसूरीनें पाटें, पक्ष ज्ञानविमलसूरी संप्रति दीपे, तेजे ३१८ हर्षविमल 1 (वि) जयविमल Jain Education International 1 कीर्तिविमल 1 विनयविमल 1 नयविमल अपरनाम ज्ञानसागरसूरि वि०सं० १७७० में रचित चन्द्रकेवलीरास अपरनाम आनन्दमंदिररास की प्रशस्ति में भी (नयविमल) ज्ञानविमलसूरि ने उक्त गुर्वावली दी है, साथ ही वि०सं० १७४९ में स्वयं को प्राप्त आचार्यपद और अपने नूतन नाम ज्ञानविमलसूरि का भी उल्लेख किया है आचारीजपद ज्ञानविमल इति, नाम थयुं सुप्रसिद्धजी ॥ १३ ॥ निधि युग मुनि शशी संवत : माने (१७४९) फागण सुदि पंचमी दिवसेंजी, पाम्या सुभ देसेजी || १४ || संवेगी सुहाया जी, तरणी सवाया जी ॥ १५ ॥ 1 धीरविमल अज्ञात कर्तृक ज्ञानविमलसूरिरास के अनुसार वि०सं० १६९४ में इनका जन्म हुआ, वि०सं० १७०२ में विनयविमलगण से दीक्षा ग्रहण की और धीरविमल के शिष्य बनकर नयविमल नाम प्राप्त किया। अमृतविमलगणि और मेरुविमलगणि के पास इन्होंने विद्याध्ययन किया। वि० सं० १७२७ माघ सुदि १० को मारवाड़ में सादड़ी के पास स्थित घाणेराव नामक स्थान पर विजयप्रभसूरि ने इन्हें पंडित (पंन्यास) पद प्रदान किया। वि० सं० १७४८ में इन्हें संडेर ग्राम में विजयप्रभसूरि की आज्ञा से महिमासागरसूरि ने आचार्य पद प्रदान किया और इस समय से ये ज्ञानविमलसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए । कवि दीपसागरगणि के शिष्य सुखसागर द्वारा रचित प्रेमविलासरास के अनुसार वि०सं० १७७७ में सूरत के श्रेष्ठी प्रेमजी पारेख ने ज्ञानसागरसूरि के उपदेश से शत्रुंजयतीर्थ की यात्रा हेतु संघ निकाला था। उक्त रास में इसका विस्तृत विवरण पाया जाता है। कवि सुखसागर के गुरु दीपसागरगणि किसके शिष्य थे! ज्ञानसागरसूरि से उनका क्या सम्बन्ध था, इस बारे में न तो उक्त कृति से और न ही सुखसागर की अन्य रचनाओं से इस सम्बन्ध में कोई जानकारी प्राप्त होती हैं। . For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003611
Book TitleTapagaccha ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2000
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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