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________________ ३२० में यह स्वीकार करना होगा कि वि०सं० १७८० में ज्ञानविमलसूरि की विद्यमानता में ही उनके पट्टधर सौभाग्यसागरसूरि ने भी अपना पट्टधर नियुक्त कर दिया होगा और ऐसा होना नितान्त अस्वाभाविक नहीं लगता। सौभाग्यसागरसूरि और उनके पट्टधर सुमतिसागरसूरि के बीच किस प्रकार का सम्बन्ध था? वे परस्पर गुरुभ्राता थे अथवा गुरु-शिष्य, प्रमाणों के अभाव में इस बात का निर्णय कर पाना कठिन है। पट्टावली की सूचना के अनुसार वि०सं० १७८८/ई० ०स० १७३२ में सुमतिसागरसूरि का निधन हो चुका था।" इस प्रकार मात्र ६ वर्षों के भीतर ही इस शाखा के तीन पट्टधर आचार्य ज्ञानविमलसूरि- सौभाग्यसागरसूरि - सुमतिसागरसूरि दिवंगत हो गये । सुमतिसागरसूरि के पट्टधर लक्ष्मीविमल अपरनाम विबुधविमलसूरि हुए। वि०सं० १८२० में रचे गये विबुधविमलसूरिरास" से इनके बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। प्राप्त विवरणानुसार विबुधविमलसूरि का आचार्य पद प्राप्ति से पूर्व नाम लक्ष्मीविमल था और वे आनन्दविमलसूरि के शिष्य हर्षविमल की परम्परा में हुए ऋद्धिविमल के प्रशिष्य और कीर्तिविमल के शिष्य थे। उक्त रास के अनुसार सीतपुर नामक स्थान में इनका जन्म हुआ था, वि०सं० १७८८ में सुमतिसागरसूरि से इन्होंने शंखेश्वर महातीर्थ में आचार्य पद प्राप्त किया। इनका निधन वि०सं० १८१४ में औरंगाबाद नामक स्थान पर हुआ। इनके द्वारा रचित वीसी (रचनाकाल वि०सं० - १७८०) का ऊपर उल्लेख किया जा चुका है। वि०सं० १८१३ में रचित सम्यकत्त्वबालावबोधरास भी इन्हीं की कृति मानी जाती है। इसकी प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि वि०सं० १८१३ में इन्होंने अपने शिष्य महिमाविमल को औरंगाबाद में सूरि पद प्रदान कर दिया था। १७ ८ महिमाविमलसूरि के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती। वि०सं० १८२० / ई० स०१७६४ में रचित विबुधविमलसूरिरास जिसका ऊपर उल्लेख आ चुका है, इन्हीं के काल में रचा गया था। चिन्तामणिपार्श्वनाथ जिनालय, शकोपुरा, खंभात में इनकी चरणपादुका स्थापित है, जिस पर वि०सं० १८४८ माघ सुदि १० गुरुवार का लेख उत्कीर्ण है। बुद्धिसागरसूरि ने इस लेख की वाचना निम्नानुसार दी है : संवत् १८४८ वर्षे माहसुदि १० गुरौ भट्टारक श्री १०८ श्रीज्ञानविमलसूरि तत्पट्टे श्रीलक्ष्मीविमलसूरि तत्पट्टे श्रीमहिमाविमलसूरिचरणपादुका कारापिता खंभायतनगरे । । उक्त लेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि वि०सं० १८४८ के पूर्व महिमाविमलसूरि का निधन हो चुका था। इनके पश्चात् विमलशाखा के सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं मिलती, इससे यही प्रतीत होता है कि महिमाविमलसूरि के निधन के साथ ही इस शाखा का अस्तित्त्व भी समाप्त हो गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003611
Book TitleTapagaccha ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2000
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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