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तपागच्छीय आचार्य देवसुन्दरसूरि के एक शिष्य गुणरतसूरि द्वारा रचित विभिन्न कृतियां मिलती हैं। वि०सं० १४६६ में रचित गुरुपर्वक्रमविवरण स में उन्होंने अपनी गुरुपरम्परा इस प्रकार बतलायी है:
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अजितदेवसूरि
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विजयसिंहसूर
सोमप्रभसूरि
बृहदगच्छीय मुनिचन्द्रसूरि
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वादिदेवसूरि आदि
गुरुपर्वक्रमविवरण के अनुसार जगच्चन्द्रसूरि ने शिथिलाचार को देखते हुए चैत्रगच्छीय देवभद्रगणि से उपसम्पदा ग्रहण कर ली। देवभद्रसूरि के गुरु कौन थे ? इस बारे में गुणरत्नसूरि कोई चर्चा नहीं की है, किन्तु जैसा कि ऊपर देवेन्द्रसूरि कृत सुदर्शनाचरित और क्षेमकीर्तिकृत बृहदकल्पवृत्ति की प्रशस्तियों में हम देख चुके हैं देवभद्रसूरि के प्रगुरु और गुरु का नाम भी उन्होंने दिया है।
मणिरत्नसूर
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जगच्चन्द्रसूरि
शान्तिनाथ जैनभंडार, खंभात में संरक्षित पाक्षिकप्रतिक्रमणसूत्र की चूर्णि और वृत्ति की वि०सं०१२९६ में लिखी गयी प्रति की प्रशस्ति के अनुसार देवेन्द्रसूरि और विजयचन्द्रसूरि ने उपा० देवभद्रगणि के व्याख्यान के प्रभाव से उक्त ग्रन्थ की प्रतिलिपि करायी । ३६
उक्त प्रशस्ति से क्षेमकीर्ति का यह मत पुष्ट होता दिखाई देता है कि देवेन्द्रसूरि और विजयचन्द्रसूरि देवभद्रगणि के शिष्य थे न कि जगच्चन्द्रसूरि के। इस प्रकार जगच्चन्द्रसूरि, देवेन्द्रसूरि और विजयचन्द्रसूरि को परस्पर गुरु भ्राता और इन्हें देवभद्रगणि का शिष्य मानने में कोई बाधा नहीं दिखाई देती । कनिष्ठ गुरुभ्राता भी अपने ज्येष्ठ गुरुभ्राता का पट्टधर हो सकता है, यह बात गुरुपर्वक्रम से भलीभाँति स्पष्ट हो जाती है।
इस प्रकार स्पष्ट होता है कि जगच्चन्द्रसूरि मूलतः बृहद्गच्छीय थे। बाद में अपने गच्छ व्याप्त शिथिलाचार से क्षुब्ध होकर उन्होंने चैत्रगच्छीय देवभद्रगणि से उपसम्पदा ग्रहण की और साधना में लीन हो गये। बाद में उन्हें जब तपा विरुद् मिला, तो उनके पट्टधरों की परम्परा तपागच्छ के नाम से विख्यात् हुई, अन्यथा ये चैत्रगच्छ के होते और स्वाभाविक रूप से चैत्रगच्छीय ही कहे जाते । देवभद्रसूरि के अन्य शिष्यों से चैत्रगच्छ की परम्परा आगे बढ़ी।
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