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प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन
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17- संथारो उत्तिमढे असुसिर-अप्फुडियभूमितलरुवो। एवं सिलामओ वा अहवेगंगिय फलगरूवो।।
(प्राचीनाचार्यविरचित आराधनापताका,गाथा पुढ़वीसिलागओ वा फलहमओ तणमओ य (?व) संथारो।। होइ समाहिनिमित्तं उत्तरसिर अहव पुव्वमुहो।।
(वीरभद्राचार्यविरचित आराधनापताका,गाथा 393) 18- तह वि असंथरमाणे कुसमाईणं तु अझुसिरतणाई। तस्सऽसइऽसंथरे वा झुसिरतणाई तओ पच्छा।।
(प्राचीनाचार्यविरचित आराधनापताका,गाथा 85) अप्पंड-पाणिदेसे समे अझुसिरे य भूमिसंथारो। अप्फुडिय असंसत्तो समपट्टसिलामओ होइ।।
(वीरभद्रचार्यविरचित आराधनापताका,गाथा 394) उयर मलसोहणट्ठा समाहिपाणं मणुन्नमेसो वि। महुरं पज्जेयव्वो मंदं च विरेयणं खवओ।।
(प्राचीनाचार्यविरचित आराधनापताका,गाथा 100) तो पाणएण परिभावियस्स उयरमलसोहणट्ठाए। महुरं पज्जेयवो मंदं च विरेयणं खवओ।।
(वीरभद्राचार्यविरचित आराधनापताका,गाथा 425) 20
ठावेऊण गणहरं आमंतेऊण तो गणं सयलं। खामे सबालवुडं पुव्वविरुद्धे विसेसेण ।।
" (प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका,गाथा 107) आमंतेऊण गणं सबाल-वुडं गणिं च तो भणइ। कडुयं फरुसं व ज्ञाणिया तं में सव्वंखमावेमि।।
दाचार्यविरचित आराधनापताका,गाथ 21
आणंदमंसुपायं कुणमाणा ते वि भूमिगय सीसा। धम्मायरियं निययं सत्वे खमेंति तिविहेणं।।
(प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका,गाथा 110) वंदिय कयंजलिउडा तायारं वच्छलं बहु ताई। निययं धम्मायरियं खमिति य ते वि तिविहेणं।।
. (वीरभद्राचार्यविरचित आराधनापताका,गाथा 174) अह सो धम्मायरिओ, करुणाऽमयसायरो नियगणस्स। चितंतो कल्लाणं उत्तरकाले जिणाणाए।।
(प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका,गाथा 111) संवेगजणियहासो सुत्त-ऽतीविसारओ सुयरहस्सो। आयलैं चिंतितो चिंतेइ गणं जिणाणाए।।
(वीरभद्राचार्यविरचित आराधनापताका,गाथा 176)
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