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________________ साध्वी डॉ. प्रतिभा इस प्रकार आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद- ये चारों सिद्धान्त जन्म और मृत्यु के इस संसार-चक्र के साथ ही योजित हैं, क्योंकि जहाँ जन्म है, वहीं मृत्यु है और जहाँ मृत्यु है, वहीं पुनर्जन्म है और इसका मूल कर्म सिद्धान्त ही है।। जैनदर्शन ने इस जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त होने के लिए मोक्ष या मुक्ति की अवधारणा को प्रस्तुत किया है और उसके साथ ही उसे प्राप्त करने के मार्ग, अर्थात् मोक्षमार्ग का प्रतिपादन किया है। मोक्ष की प्राप्ति के लिए आराधना आवश्यक है और आराधना में समाधिमरण की अवधारणा को प्रमुख माना गया है। (अ) श्वेताम्बर-परम्परा के मान्य आगम और आगमेतर ग्रन्थ आचारांग-सूत्र-जैन-आगम-साहित्य में आचारांगसूत्र को प्राचीनतम माना जाता है। विद्वानों की मान्यता है कि आचारांग में स्वयं भगवान् महावीर की वाणी संकलित है। गणधर गौतम ने इसे सूत्रबद्ध किया था। इसकी रचना सम्भवतः ईसा पूर्व पांचवी-छठवीं शताब्दी में हुई, ऐसा माना जाता है। द्वादशांगी में इसका प्रथम स्थान है। यह ग्रन्थ दो श्रुतस्कन्धों में विभाजित है। दोनों श्रुतस्कन्धों को मिलाकर इसमें कुल पच्चीस अध्ययन, 85 उद्देशक और अठारह हजार पद हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध में नौ अध्याय एवं द्वितीय श्रुतस्कन्ध में सोलह अध्याय हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि प्रथम श्रुतस्कन्ध द्वितीय श्रुतस्कन्ध की अपेक्षा अधिक प्राचीन है। आचारांग में मुख्य रूप से मुनिधर्म का विवरण मिलता है। इसके प्रथम श्रुतस्कन्ध में समाधिमरण की भी चर्चा है। प्रथम श्रुतस्कन्ध के नौ अध्यायों के नाम इस प्रकार हैं- प्रथम अध्याय शस्त्रपरिज्ञा. द्वितीय अध्याय लोकविजय. ततीय अध्याय शीतोष्णीय, चतर्थ अध्याय सम्यक्त अध्याय लोकसार, षष्ठ अध्याय द्यूत, सपतम अध्याय महापरिज्ञा, अष्टम अध्याय विमोक्ष तथा नवम अध्याय उपधानश्रुत। इनमें से अष्टम अध्याय में समाधिमरण की साधना की चर्चा है। मोक्ष की प्राप्ति के लिए आराधना आवश्यक है और आराधना में समाधिमरण की साधना को प्रमुख माना गया है। समाधिमरण की साधना जीवन के द्वार पर दस्तक दे रही है। यह मृत्यु के आगमन की शान्ति-भाव से स्वीकृति है। ___ आचारांगसूत्र' में यह कहा गया है कि किसी भी प्राणी के लिए मृत्यु परम भयकारक है, किन्तु इसके साथ ही यह भी सत्य है कि मृत्यु अपरिहार्य है। आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध के विमोक्ष नामक आठवें अध्याय में तीन प्रकार की अन्तिम आराधनाओं का वर्णन किया गया है, यथा- 1 भक्त-प्रत्याख्यान, 2 इंगिनीमरण 3 प्रायोपगमन-मरण। इसके साथ ही इसमें काल की अपेक्षा से उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य-संलेखना या समाधिमरण का भी वर्णन मिलता है। यह विवरण आराधना पताका में भी समान रूप से मिलता है। वहाँ यह भी कहा गया है कि समाधिमरण के साधक को जीवन और मृत्यु की कामना से रहित होकर जीवन के द्वार पर दस्तक दे रही मृत्यु का शान्त भाव से स्वागत करना चाहिए। डॉ. सागरमल जैन ने अपने लेख जैन आगमों में समाधिमरण की अवधारणा में यह निर्देश किया है कि आचारांगसूत्र में जिन परिस्थितियों में समाधिमरण की अनुशंसा की गई है, वे विशेष रूप से विचारणीय हैं। सर्वप्रथम तो आचारांग में समाधिमरण का उल्लेख उसके प्रथम श्रुतस्कन्ध के 'आचारांगसूत्र अध्ययन, 1/1/1 डॉ. सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रंथ, सं. डॉ. सुदर्शनलाल जैन, पृ. 425-432 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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