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________________ 40 साध्वी डॉ. प्रतिभा अध्याय - 2 समाधिमरण सम्बन्धी आगम और आगमेतर ग्रन्थ आत्मा की शाश्वतता को रेखांकित करते हुए तथा मृत्यु के पश्चात् किसी अन्य जन्म में किसी अन्य शरीर में पुनर्जन्म के बारे में 'आचारांगसूत्र' में विस्तार से चर्चा उपलब्ध होती है।' श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है कि जो जन्म लेता है, उसकी मृत्यु निश्चित है तथा मरने वाले का पुनर्जन्म भी निश्चित है। जब तक आत्मा संसार में रहती है, तब तक उसके लिए मृत्यु एक वास्तविकता है। मृत्यु की वास्तविकता होते हुए भी संसार में कोई भी प्राणी उसे सहज रूप में नही लेता है। सभी भाषाओं के साहित्य में तथा सभी धर्मों के शास्त्रों में मृत्यु की अवश्यम्भाविता के बारे में कहा गया है, परन्तु साथ में यह भी कहा गया है कि मृत्यु सबसे भयावह दुःखकारी तथा पीडाकारी होती है। उत्तराध्ययनसत्र में शास्त्रकार कहते हैं कि जन्म दःख है, जरा दःख प्रकार रोग तथा मृत्यु भी दुःख हैं; जिनसे सांसारिक-प्राणी दुःखी होते रहते हैं। इसी प्रकार, आदि शंकराचार्य ने भी बारम्बार जन्म और मृत्यु को तथा बार-बार माता के गर्भ में रहने को अति पीड़ादायक बताया है, इसलिए अनादिकाल से ही महान सन्तों और धर्म-प्रवर्तकों का यह प्रयास रहा है कि वे संसार के सभी प्राणियों को और विशेषतया मानवों को इस दुःख, संताप और क्लेश से मुक्त करें। उनके द्वारा प्रवर्तित और प्रचारित सभी धर्मों और समुदायों ने प्राणियों के लिए संसार से मक्त होकर एक ऐसी शाश्वत सत्ता प्राप्त करने का मार्ग बताया है, जिसे मोक्षमार्ग कहा गया है, जहाँ कि वे अनन्त-काल तक अनन्त सुख का उपभोग कर सकें। यह स्पष्ट है कि ऐसा तभी सम्भव है, जब प्राणी पुनर्जन्म की श्रृंखला का भेदन करके जन्म-मृत्यु के चक्र को समाप्त कर दे। प्राणी चाहे कितना ही सशक्त व मनोबली क्यों न हो, अन्तकाल में मृत्यु का भय उसे त्रस्त करने के लिए पर्याप्त होता है। जैन-विचारकों ने इस भय और तद्जन्य त्रास से पार पाने के लिए एक अनुपम मार्ग की खोज की है। उन्होंने मृत्यु की अवश्यम्भावी घटना का स्वागत समभावपूर्वक करने का मार्ग ही नहीं सझाया, अपित यह भी कहा कि जब मत्य आसन्न हो, तो व्यक्ति स्वयं समभाव से उस दिशा में आगे बढ़कर उसका स्वागत करे। उन्होंने यह कहा कि इस प्रकार समभावपूर्वक मृत्यु का आलिंगन करने से आत्मा कों की निर्जरा करके मुक्ति या निर्वाण को प्राप्त करता है। समतापूर्वक मृत्यु की इस अवधारणा को जैनधर्म में समाधिमरण कहा गया है। आचारांगसूत्र - 1/1/1/1 जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु- ध्रुवं जन्म मृतस्य च। - श्रीमद्भगवद्गीता - 2/27 जम्म दुक्खं जरा दुक्खं, रोगाणि मरणाणि य। अहो दुक्खो हू संसारो, जत्थ कीसंति जंतवो।। - उत्तराध्ययन, 19/15 'पुनरपि जन्म पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनं। इह संसारे बहुदुस्तारे, कृपयापारे पाहि मुरारे।। - आदि शंकराचार्य, मोहमुद्गर-स्तोत्र/21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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