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________________ 18 साध्वी डॉ. प्रतिभा लेकर इस अवसर्पिणीकाल की अंतिम फाल्गुनी साध्वी पर्यंत पवित्र साध्वियों से, श्रेयांस आदि से लेकर नागिल पर्यंत श्रावकों एवं सुन्दरी प्रमुखा से लेकर सत्यश्री पर्यंत सभी श्राविकाओं से मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव, केवलज्ञान धारण करने वालों से, चौदह पूर्वधारियों से एवं बारह अंग के ज्ञाता ज्ञानी मुनियों से, नवपूर्वियों से, ग्यारह अंग को धारण करने वाले प्रमुख मुनियों से, जिनकल्पियों से, परिहारविशद्ध-चारित्र के पालक मनियों से. लब्धिधारी मनियों से बारह चक्रदेवों नौ बलदे वासुदेवों, नौ प्रतिवासुदेवों से तथा जिनेश्वरों के श्रेष्ठ माता-पिताओं के प्रति मेरे द्वारा अनन्त संसार में भ्रमण करते हुए मोह से आविष्ट होकर, अथवा रति-अरति द्वारा, या चित्त के कषाययुक्त होने से जो कुछ भी अपराध हुए हों, उन सबके लिए अपने-आप से विनयपूर्वक शीश झुकाकर क्षमा याचना करता हूँ। प्रस्तुत कृति के चौबीसवें आशातनाप्रतिक्रमण-द्वार (गाथा 503-513) में क्षपक साधक कहता है- इस प्रकार, सिद्धादि से क्षमायाचना करके अब मैं आशातना-दोषों का प्रतिक्रमण करता हूँ। वे इस प्रकार हैं (अ) गुरु-सम्बन्धी तैंतीस आशातनाएं 1-9. गुरु से अति निकट होकर उनके आगे-पीछे, दाएं-बाएं चलना, खड़े रहना, अथवा बैठना, 10. गुरु से पहले आचमन करना, 11. गुरु को बताए बिना आलोचना कर लेना, 12. अश्रवण- पलटकर जवाब देना, 13. गुरु से पहले ही उत्तर दे देना, 14. गुरु को छोड़कर किसी अन्य के पास गोचरी की आलोचना करना, 15. गुरु को छोड़कर दूसरों को गोचरी दिखाना, 16. गुरु से पहले दूसरों को आहार हेतु आमंत्रण देना, 17. भिक्षा लाकर गुरु की अनुमति के बिना दूसरों को आहार देना, 18. गुरु से पूर्व स्वयं अधिक मात्रा में आहार कर लेना, 19-20. गुरु के बुलाने पर भी जवाब न देना, 21. आसन पर बैठे-बैठे ही जवाब देना, 22. क्या कहते हो ? इस प्रकार जवाब देना, 23. गुरु के प्रति तुच्छ शब्दों, जैसे- 'तू' आदि का प्रयोग करते हुए बात करना, 24. गुरु के सामने बोलना, 25. गुरु के उपदेश से क्रुद्ध होना, 26. आपको यह बात याद नहीं है- गुरु को ऐसा कहना, 27. श्रोताओं को कहना कि यह बात मैं तम्हें अच्छी तरह से समझाऊंगा, 28. प्रवचन-सभा भंग क 29. गुरु द्वारा प्रवचन समाप्त कर देने पर अपनी विद्वत्ता बताने हेतु पुनः प्रवचन प्रारम्भ करना, 30. गुरु के आसन आदि को पांव लगाना, 31. गुरु के शय्या-आसन पर बैठना, 32. गुरु से ऊपर बैठना, 33. गुरु के बराबर बैठना। गुरु-सम्बन्धी तैंतीस आशातनाओं का प्रतिक्रमण करके अब मैं उन्नीस आशातनाओं का प्रतिक्रमण करता हूँ1. अरिहन्तों की आशातना, 2. सिद्धों की आशातना, 3. आचार्यों की आशातना, 4. उपाध्यायों की आशातना, 5. साधुओं की आशातना, 6. साध्वियों की आशातना, 7. श्रावकों की आशातना, 8. श्राविकाओं की आशातना, 9. देवों की आशातना, 10. देवियों की आशातना, 11. इस लोक की आशातना, 12. परलोक की आशातना, 13. केवली-प्ररुपित धर्म की आशातना, 14. देव, मनुष्य, असुर सहित समग्र लोक की आशातना, 15. सर्व प्राणभूत जीवों की आशातना, 16. काल की आशातना, 17. श्रुतशास्त्र की आशातना, 18. श्रुतदेवता की आशातना और 19. वाचनाचार्य की आशातना। इन उन्नीस में से प्रत्येक आशातना का प्रतिक्रमण करके शेष सूत्रविषयक निम्न चौदह आशातनाओं का भी प्रतिक्रमण करता हूँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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