SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन मांगता हूँ। किल्विषकों में उत्पन्न होकर खिलखिलाते हुए जो पाप किए गए, उनकी मैं निन्दा करता हूँ। 17 सारस्वतादि देवों के रूप में उत्पन्न होकर मेरे द्वारा जो दुःखद कार्य हुए, उनकी त्रिविध निन्दा करता हूँ। गैवेयक व अनुत्तर -विमानों में उत्पन्न होकर जीवों के लिए मन से भी जो दुःखंद विचार किए, मेरे वे पाप मिथ्या हों। प्रस्तुत कृति के इक्कीसवें स्वजनक्षामणा-द्वार (गाथा 470-478) में क्षपक अपने परिजनों से क्षमा-याचना करता है। वह कहता है- नारक, तिर्यंच, नर, अमर जीवों से क्षमा-याचना करके अब मैं अपने स्वजनों (पारिवारिक - लोगों) से क्षमा-याचना करता हूँ। माता, पिता, भ्राता, पुत्र, मित्र, भगिनियां, वधुएं, भाभियां, पति, पत्नी, सास-ससुर आदि स्वजनों, अन्य भी बंधु-बांधव आदि स्वजन मेरे द्वारा कठोर वचनों से तिरस्कृत किए गए, अथवा अज्ञानतावश तर्जना, ताड़ना द्वारा दुःखित किए गए, उन सबसे मैं सम्यक् रूप से क्षमायाचना करता हूँ। मेरे द्वारा चुगली या ईर्ष्या की गई, झूठे दोषारोपण व मर्मभेदी भाषण किए गए, अथवा दुःखित स्वजनों की अपनी शक्ति होते हुए भी सहायता नहीं की गई, उनसे सम्पत्ति के लिए झगड़ा किया हो, उनका सम्यक् विनय नहीं किया हो, तो मैं उन सबसे क्षमा-याचना करता हूँ। प्रस्तुत कृति के बाईसवें संघक्षामणा - द्वार (गाथा 479-489) में सकल संघ से क्षमा-याचना करने का उल्लेख है। इसमें क्षपक अपने स्वजनों (कौटुम्बिक - जनों) से क्षमा-याचना करने के पश्चात् विनयपूर्वक सकल संघ से क्षमायाचना करता है। पंच महाव्रतों से युक्त सच्चरित्री, सुसाधुओं तथा सुसाध्वियों से एवं सम्यक्त्वयुक्त सुश्रावकों व सुश्राविकाओं से गठित - ऐसा तीर्थंकरों से पूजित चतुर्विध-संघ सुर, असुर नरेंद्रों के लिए भी नमनीय है। संघ की अवज्ञा करने वाले जीव संसार में परिभ्रमण करते हुए नरकादि के दुस्सह दुःख सहते हैं। यह संघ सर्व इच्छाओं को पूर्ण करने वाले कुम्भ के समान है, कल्पवृक्ष के समान है, शिव, सुख, सम्पत्ति को देने वाला तथा कामधेनु व चिन्तामणि - रत्न के समान है । ऐसे संघ के विनय के फलस्वरूप जीव सुर, असुर, चक्रवर्ती बलदेव, वासुदेव आदि की ॠद्धि एवं तीर्थंकर व गणधर - पद को भी प्राप्त करते हैं । संघ संसार - समुद्र को पार करने के लिए जहाज के समान तथा मोक्षसुख को पाने के लिए सीढ़ी के समान है। संघ करुणा का सागर है, गुणमणियों की श्रेष्ठ निधि है, जिससे मोह, पाप व प्रमाद रुक जाते हैं, अतः मैं अत्यधिक हर्षित होकर, अंजलिबद्ध होकर संघ के प्रति समस्त अपराधों के लिए क्षमापना करता हूँ। आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, साधर्मिकों, कुलगण के प्रति मैंने जो कषाय किया हो, मैं उन सबने क्षमायाचना करता हूँ । प्रस्तुत कृति के तेईसवें जिनवरादिक्षामणा-द्वार (गाथा 490 - 502 ) में यह बताया गया है कि अब क्षपक संघ से क्षमायाचना करके पूर्ण रूप से विरक्त होकर सभी जिनवरों से क्षमा-याचना करते हुए कहता है- भरत, ऐरावत व विदेह - क्षेत्रों में भूत, भविष्यत् व वर्त्तमान में रहे हुए तीर्थंकरों से, गणधरों से, केवलज्ञानी जिनेश्वरों से क्षमा-याचना करता हूँ । भरतक्षेत्र में होने वाले पद्मनाभ आदि भावी जिनेश्वरों से क्षमा-याचना करता हूँ । भगवान् ऋषभदेव के प्रथम पुण्डरीक आदि गणधरों से लेकर पंचम आरे के अंतिम आचार्य दुप्पसह मुनि पर्यंत सभी आचार्यों एवं उनके श्रमणसंघ के तथा बाहरी प्रमुख प्रथम साध्वी ब्राहमी से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy