________________
प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन
वाले, असंज्ञी-मिथ्यादृष्टि, अपर्याप्त समूर्छिम मनुष्य जो मेरे द्वारा हनन किए गए हों, उन सभी से भी मैं क्षमा याचना करता हूँ।
कर्मभूमि के पांचों भरत-क्षेत्रों में, पांचों विदेह-क्षेत्रों में एवं भरत-पंचक तथा ऐरावत-पंचक में रहने वाले मनुष्यों की रंचमात्र भी विराधना की हो, तो मैं त्रिविध रूप से क्षमा याचना करता हूँ।
इसी प्रकार, अकर्म-भूमि के पांचों हेमवतों में, पांचों हरिवर्षों में, पांचों देवकुरुओं में, पांच उत्तरकुरुओं में तथा रम्यकवर्ष पंचक में, पांच हिरण्यव्रतों तथा छप्पन अन्तरदीपों में जिन भी मानव को मेरे द्वारा कष्ट पहुँचाए गए हों, तो मैं उन सभी से क्षमायाचना करता हूँ। असुरकुमार आदि की व भवनपतियों की दस जातियों के प्रति मेरे द्वारा जो कोई भी प्रतिकूल कर्म विधित या अनुष्ठित हुआ हो एवं अम्ब तथा पन्द्रह प्रकार के परमाधर्मिक-देव आदि के प्रति अवज्ञा हुई हो, तो मैं क्षमायाचना करता हूँ। सोलह प्रकार के अल्पाढ्य व महाढ्य वनचर-देवों के प्रति एवं जृम्भक आदि अन्य दस प्रकार के व्यन्तर-देवों को भी वैरानुबन्ध के कारण संताप दिया हो, तो मैं क्षमाचायना करता हूँ।
सौधर्मादि बारह प्रकार के वैमानिक-देवों को भी मेरे द्वारा बाधा उत्पन्न हुई हो, तो मैं उनसे भी क्षमाचायना करता हूँ। तीन किल्विषिक, सारस्वतादि, लोकान्तिक-देवों को मिथ्यात्व के वशीभूत होकर रागद्वेष किया हो, तो मैं सर्वतोभावेन निन्दा करता हूँ। नवविध ग्रैवेयक, पांच प्रकार के अनुत्तर-वैमानिक-देवों की जो अज्ञानतावश आशातना की हो एवं नरक में उत्पन्न होने से नारकियों को भी मैंने प्रताड़ित किया हो, उनके लिए जो दुःख रचे हों, उनके लिए भी मैं क्षमायाचना करता हूँ। इसी प्रकार, मिट्टी, लवणादि के भेद से पृथ्वीकायिक-जीवों के रूप में उत्पन्न होने से मधुर आहारादि विविध भेद से अप्कायिक-जीवों के रूप में उत्पन्न होने से, विद्युत, अंगार, ज्वाला रूपी तेजस्काय-जीवों के रूप में उत्पन्न होने से सघन व विरल पवनरूपी वायुकायिक-जीवों के रूप में उत्पन्न होने से, प्रत्येक वनस्पतिकाय एवं साधारण वनस्पतिकाय के रूप में जन्म लेने से- इस प्रकार इन पांच प्रकार के जीवों को दुःखित किया हो, तो मैं क्षमायाचना करता हूँ। शंख, कोड़ी आदि बेइन्द्रिय-जीवों के बीच उत्पन्न होने से मेरे द्वारा जो जीव दुःखित हुए हैं, उसकी मैं निन्दा करता हूँ। इसी प्रकार, तेइन्द्रिय-जीवों के रूप में उत्पन्न होने से आहार के लिए एवं अज्ञान-दोष से जिन प्राणियों की विराधना की हो, उनके लिए मैं क्षमा याचना करता हूँ। इसी प्रकार, जब मेरा जीव बिच्छू, मकड़ा आदि चतुरिन्द्रिय-जीवों के रूप में गया, तब मेरे द्वारा जिनको परेशान किया गया, उन सभी की मैं त्रिविध गर्दा करता हूँ। मत्स्य, मगरादि जलचर-जन्म पाने से जो जीव मारे या क्षुधावश निहत किए गए हों, उनके लिए भयभीत होकर क्षमापना करता हूँ। चीता, सिंह आदि थलचर जीवों के मध्य उत्पन्न होने से मेरे द्वारा जो जीव वध किए गए, उन सबसे मैं त्रिविधि क्षमायाचना करता हूँ। गिद्ध, भिलुक, हुलाहित, श्येनादि क्रूर खेचरों के रूप में जन्म लेने से जिन जीवों को मारा, उन सबसे मैं क्षमायाचना करता हूँ।
सांप, अजगर आदि उरपरिसर्प-गति में उत्पन्न होने से जिन किन्हीं प्राणियों को डंसा-ग्रसा हो, तो उन सबसे मैं क्षमा याचना करता हूँ। गोह, नेवला आदि भुजपरिसर्प-जाति के रूप में उत्पन्न होने से, जिन किन्हीं प्राणियों को दुःखित किया हो, वे मुझे क्षमा करें।
गर्भज-मनुष्यत्व में उत्पन्न होकर मेरे द्वारा जो पापकर्म किए गए, उन सबकी पश्चाताप सहित निन्दा करता हूँ।
राग-द्वेष के कारण अमनोज्ञ व मनोज्ञ शब्दों से जो कर्म अर्जित किए गए, उनकी निन्दा करता हूँ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org