________________
प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन
__189
केवली है' ऐसा जाहिर हुए बिना केवली भी पूर्व व्यवहार को नहीं छोड़ते हैं।" फिर, आचार्य ने पछा- "मैं दीर्घकाल से उत्तम चारित्र की आराधना-साधना कर रहा हूँ, मैं भी निर्वाण-पद को प्राप्त करूंगा या नहीं?" साध्वीजी ने कहा- "हे मुनिशः! निर्वाण के लिए संशय क्यों करते हो, क्योंकि गंगा नदी के पार करते हुए तुम भी शीघ्र ही कर्म क्षय करोगे।"
यह सुनकर आचार्य गंगा पार करने हेतु नाव पर बैठे। आचार्य के नाव पर बैठते ही वह नाव डूबने लगी। इससे, 'सभी का नाश होगा सभी नदी में डूब जाएंगे', ऐसा जानकर निर्यापक ने
र्य को उठाकर नदी में फेंक दिया। यह जानकर आचार्य उपशान्त-भाव से अपनी साधना में निमग्न हो गए और सभी आश्रवद्वारों को रोकनेवाले शुक्ल-ध्यान में स्थिर हुए, जिससे उन्होंने कर्मो का क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त किया, जल में ही सर्वयोगों का सम्पूर्ण निरोध करके मोक्षपद प्राप्त किया।
दारुण उपसर्गों में भी समताभाव धारण कर आराधनापर्वक साधक अन्तकतकेवली बन सकता है, अतः मुनिश्रेष्ठ तप के द्वारा समाधि में निमग्न होकर सहजता से अनादिकाल के कर्मों को क्षमा कर शाश्वत सुखों को प्राप्त कर सकते हैं। संथारा-संलेखना व्यक्ति तब ही ग्रहण कर सकता है, जब न तो साधक के मन में कामना हो, न भोगों की आकांक्षा हो, न शरीर के प्रति आसक्ति। क्षुधा की पीड़ा, शरीर की वेदना, स्वजन और मित्रों की ममता और कषायों की तपन, सब कुछ वहाँ शान्त हो जाती है, प्रायश्चित्त द्वारा साधक अपनी आत्मा की शुद्धि कर लेता है और परम शान्त एवं निर्विकार स्थिति में रहकर आत्मरमण करने लगता है। इस कथानक का वर्णन प्राचीनाचार्यविरचित आराधनापताका में भी दिया गया है। यही कथानक संवेगरंगशाला में भी वर्णित है। यह कथा आवश्यकचूर्णि (भाग 1, पृ. 355-358, 362-604, भाग 2 पृ. 177), व्यवहारसूत्रभाष्य (भाग- 4 पृ. 105), मरणसमाधि (गाथा 637), महानिशीथ (176), वृहत्कल्पभाष्य (गाथा 6196) आदि में भी उपलब्ध होती है। साथ ही यह कथानक संस्तारक प्रकीर्णक (गाथा 56-57), निशीथचूर्णि (भाग 2 पृ. 231), आवश्यकवृत्ति (पृ. 421-30) आदि ग्रन्थों में भी उपलब्ध होता है।
आचार्य भद्रबाहु के चार शिष्यों का कथानक
आचार्य भद्रबाहु को दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों मान्यताओं में पाँचवां और अन्तिम श्रुतकेवली माना गया है। ये जैन धर्म के महान् पूर्वधर आचार्य थे। दोनों ही मान्यताओं में इनका स्थान है।
पडिणीय देवयाए गंगातीरे तिसूल भिन्नो वि। आहारणं पवन्नो किं न सुओ अन्नियापुत्तो ।।
आराधनापताका, गाथा - 804
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org