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________________ 188 साध्वी डॉ. प्रतिभा या न इसीलिए वे यहाँ आए है। श्रमण साधना छोट अब वे पन: गहस्थ बनकर राज्य करेंगे।" " | होने दूंगा।" केशीकुमार ने द्वेष की अग्नि में सुलगकर कहा- "मुनि की इच्छा मैं पूरी नहीं होने दूंगा।" केशी के मंत्रियों ने मुनि को भोजन में विष दे दिया, तब उन्हें यह ज्ञात हुआ। उन्होंने समाधिमरण अंगीकार किया और समताभावपूर्वक प्राण त्यागे और निर्वाण पद प्राप्त किया। इस प्रकार, उन्होंने मृत्यु को समुपस्थित पाकर समाधिमरण किया।' पुष्पभद्र नामक एक नगर था, वहाँ पर पुष्पकेतु नाम का राजा राज्य करता था, उसकी रानी का नाम पुष्पवती था। समयायुसार रानी ने एक युगल को जन्म दिया। पुत्र का नाम पुष्पचूल और पुत्री का नाम पुष्पचूला रखा गया। उन दोनों का प्रगाढ़ स्नेह देखकर राजा ने सोचा – 'इनका आपस में बिछोह ना हो इस कारण उन दोनों की शादी कर दी। पुष्पवती को इससे निर्वेद अर्थात् वैराग्य उत्पन्न हुआ और उसने दीक्षा ले ली। अन्त में, वह साधना करके देवलोक में उत्पन्न हुई। वहाँ से देवी ने पुष्पचूला को प्रतिबोध देने के लिए स्वप्न में भयंकर दुःखों से दुःखित नारकी जीवों को बताया। उस वीभत्स स्वप्न को देखकर उसने राजा को नरक का वृत्तान्त कहा। राजा ने विश्वास के लिए बहुश्रुत अर्णिकापुत्र आचार्य से उस सम्बन्ध में पूछा। उन्होंने भी नरक के यथार्थ-स्वरूप का वर्णन किया। पुष्पचूला रानी ने कहा- "हे भगवन्! क्या आपने भी स्वप्न में ऐसा वृत्तान्त देखा था?" आचार्य श्री ने कहा- “हे भद्रे। जगत में ऐसा कुछ नहीं है, जिसे जिनेश्वर परमात्मा द्वारा कथित आगम से नहीं जाना जा सके। पुनः, इसी तरह पुष्पचूला ने स्वप्न में स्वर्गलोक देखा। आचार्य ने उसका भी यथार्थ स्वरूप बताया। इसे सुनकर हर्षित हुई रानी भावपूर्वक गुरु के चरणों में नमस्कार करके कहने लगी- "हे भगवन्त! आपने मुझे नरक के दुःखों और स्वर्ग के सुखों का सम्यक-बोध कराया है।" पुष्पचूला रानी ने वैराग्य प्राप्त कर राजा से दीक्षा की अनुमति माँगी। इसे सुनकर राजा को अत्यन्त दुःख हुआ, फिर अन्यत्र विहार न करके इसी क्षेत्र में रहना- ऐसी प्रतिज्ञा के साथ अति कठिनाई से राजा ने उसे दीक्षा की आज्ञा प्रदान की। पुष्पचूला साध्वी दीक्षा लेकर तप द्वारा कर्म-निर्जरा करने लगी। एक समय नगर में भारी दुष्काल पड़ा। आचार्य ने सभी शिष्यों को दूर भेज दिया और स्वयं ने अस्वस्थता के कारण वहीं पर स्थिरवास किया। पुष्पचूला साध्वी उन्हें राजमहल से आहार-पानी लाकर देती थी। इस तरह विशुद्ध परिणाम वाली उस साध्वी ने अप्रतिपाति केवलज्ञान प्राप्त किया, परन्तु केवलीरूप में प्रसिद्ध होने से पूर्व केवली अपना पूर्व आचार का उल्लंघन नहीं करते हैं तथा विनयपूर्वक आचार का पालन करते है। एक बार वात-कफ से पीड़ित आचार्य को तिक्त आहार खाने की इच्छा हुई, तो साध्वी ने उनकी इच्छा को उसी तरह पूर्ण किया। आचार्य ने आश कहा- "हे आएं! तूने मेरे मानसिक गुप्त चिन्तन को किस तरह से जाना?" साध्वी ने कहा- "ज्ञान से।" आचार्य ने पूछा- "कौन से ज्ञान से?" "अप्रतिपाति केवलज्ञान के द्वारा।" यह सुनकर, “धिक्कार हो! मुझे धिक्कार हो! मैने केवली की आशातना की है," इस तरह आचार्य शोक करने लगे, तब साध्वी ने कहा- "हे मुनिश्वर! शोक मत करो, क्योंकि 'यह 'अणिमित्तमित्तेहिं मंतीहिं विदित्ततिव्वविसजोगो। वियणं परदेहे इव सहिउं उद्दायणो सिद्धो ।।-आराधनापताका, गाथा - 803 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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