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________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन 181 लगे। एक दिन विचरते-विचरते कीर्त्तिधर मुनि साकेतनगर में पधारे। अचानक उनकी रानी सहदेवी ने मुनि को नगर में भिक्षा के लिए भ्रमण करते देखा। इससे वह सोचने लगी -कहीं यह मुनि मेरे त्र को भी दीक्षा का उपदेश न दे दे। ऐसा विचार कर रानी ने अपने सेवकों रो कहकर मुनि को नगर से बाहर निकलवा दिया। उसी समय कीर्तिधर मुनि के पुत्र सुकौशल राजकुमार ने धाय माता को रोते देखा। उसने उस धाय माता से पूछा- "आप इस प्रकार क्यों रो रही हो ?" धायमाता ने उस राजकुमार को सर्व सत्य वृत्तान्त बता दिया। धायमाता की बात सुनकर राजा सुकौशल वहाँ से निकलकर शीघ्र अपने पिता मुनि को वन्दन करने के लिए चल दिया। जंगल में वह अपने पिता, जो मुनि बने हुए थे, उनको खोजने लगा। अचानक, एक वृक्ष के नीचे ध्यान में स्थित एक मुनि को देखकर उसने तुरंत अपने पिता को पहचान लिया और भावपूर्वक उनके चरणों में गिरकर उन्हें वंदन किया और बोला- "हे भगवन! क्या अपने प्रिय पत्र को इस तरह अग्नि से जलते हए घर में छोड़कर पिता को दीक्षा लेना योग्य है ? हे भगवन्! मुझे भी आप इस संयमरूपी रत्न को प्रदान कर भवसागर से पार कर दीजिए।" कीर्तिधर मुनि ने देखा, पुत्र को तीव्र वैराग्यभाव उत्पन्न हुआ है- ऐसा जानकर उन्होंने उसे दीक्षा प्रदान की। रानी को जैसे ही मालम हआ कि उसके पत्र सकौशल ने मनि पिता के उपदेश से दीक्षा अंगीकार कर ली है। उसे अत्यन्त दुःख व क्रोध उत्पन्न हुआ और क्रोधावेश में वह महल से गिरकर मर गई। रानी वहाँ से मरकर मोग्गिल नामक पर्वत पर शेरनी के रूप में उत्पन्न हुई। इधर मुनि भी विचरते-विचरते उसी पर्वत पर पहुँचे। वहाँ मुनि ने चार महीने ध्यान-साधना की । उसके बाद शरदकाल में जब विहार करने लगे तब मुनि को देखकर पूर्व बैर से क्रोधित बनी शेरनी ने उन पर छलांग लगाई। मुनि ने देखा, अब इस शेरनी का तीव्र उपसर्ग उपस्थित हुआ है- ऐसा जानकर मुनि ने सागार-प्रत्याख्यान किया तथा अपने कायोत्सर्ग में दृढ़ हो गए। शेरनी ने मुनि को पृथ्वी पर गिराकर उनका भक्षण करना प्रारम्भ किया। उस समय मुनि उस दारुण वेदना को समभाव से सहन करते हुए चिन्तन करने लगे। इस संसार में दुःख तो पग-पग पर है, परन्तु जैन-धर्म मिलना अति दुर्लभ है। यह जिनधर्म मुझे पुण्योदय से प्राप्त हुआ है, इसलिए मेरा जन्म भी सफल है, लेकिन बस एक ही चिन्ता है कि मैं इस शेरनी के कर्मबन्ध में निमित्त बना हूँ, मुझे मेरी आत्मा का शोक नहीं है, बल्कि दुःख-समुद्र में पड़ी हुई इस शेरनी का शोक है, जिन महापुरुषों ने मोक्ष लो प्राप्त कर लिया है, उनको मैं भाव से नमन करता हूँ। ऐसा चिन्तन-मनन करते हुए सम्पूर्ण कर्ममल का प्रक्षालन कर धर्मध्यान से शुक्ल-ध्यान में उत्तरोत्तर बढ़ते हुए अन्तकृत-केवली सुकौशल राजर्षि ने सिद्धगति को प्राप्त किया। जब व्यक्ति उत्तरोत्तर उच्च लक्ष्य की ओर उन्मुख हो जाता है, तो उसके लिए कौनसी वस्तु दुःसाध्य है ? अर्थात् विकट परिस्थितियों में भी उच्च भावों से संलेखना ग्रहण करने से व्यक्ति मोक्ष के अनुपम सुख को प्राप्त करता है। आकस्मिक रूप से मृत्यु के समक्ष उपस्थित होने पर सागारी-संथारा ग्रहण करने के सन्दर्भ में सुकौशल मुनि की कथा दृष्टव्य है। प्राचीन आचार्यकृत आराधनापताका में यह कथानक हमें उपलब्ध होता है, उसी प्रकार यही कथानक हमें संवेगरंगशाला, मरणसमाधि-संस्तारक और भक्त-परिज्ञा नामक प्राचीन ग्रन्थों में भी उपलब्ध होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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