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________________ 180 साध्वी डॉ. प्रतिभा तलवार की धार पर भी चलूंगा।" आचार्य बोले -."वत्स! श्रमणाचार का निर्दोष पालन तुम्हारी शक्ति के बाहर है।" अवन्ती सुकुमाल बोला- "प्रभो! मैं तन से अवश्य सुकुमार हूँ, लेकिन मेरा हृदय वज से भी कठोर है। मैं निश्चय ही भागवती-दीक्षा ग्रहण करूंगा और निर्दोष आचरण का पालन करूंगा।" आर्य सुहस्ती ने यह समझ लिया कि सुकुमाल किसी भी उपाय से मानने वाला नहीं है। उन्होंने कहा- "भद्रानन्दन! दीक्षा ग्रहण करने से पहले अपने परिवारजनों की आज्ञा ले आओ।" तदनन्तर, अवन्ती सुकुनाल ने परिवारजनों से अनुमति प्राप्त करने का प्रयत्न किया। उसने इस प्रयास में अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगा दी, लेकिन परिवारजनों ने अनुमति नहीं दी, किन्तु उसे तो श्रमण-दीक्षा लेकर नलिनीगुल्म-विमान में उत्पन्न होने की तीव्र लालसा थी। उसने स्वयं ही केशलुंचन करके श्रमणवेश धारण किया और आर्य सुहस्ति की सेवा में उपस्थित होकर बोला"गुरूदेव! मुझे प्रव्रजित कर लीजिए। मैं आपके चरणारविन्दों में आ खड़ा हूँ।" आचार्यश्री ने उसे इस वेश मे देखा। वे समझ गए कि सुकुमार को संसार से पूर्ण रूप से विरक्ति हो गई है। उसे शरीर से भी ममत्व नहीं रह गया है। अतः उन्होंने उसे श्रामणी दीक्षा प्रदान कर दी। प्रव्रजित होकर अवन्ति सुकुमाल ने आचार्यश्री से प्रार्थना की- “प्रभो! मैं अधिक समय तक श्रमण जीवन के कष्टों को नहीं सह सकूँगा, इसलिए मुझे आमरण अनशनपूर्वक साधना करने की आज्ञा प्रदान कीजिए।" मुनि अवन्ती सुकुमाल को इच्छानुसार आज्ञा प्राप्त हो गई। तत्काल वे उज्जयिनी को त्यागकर दूर घने वनों में पहुंचे और एक उपयुक्त स्थल का चयन कर वहाँ ध्यान-साधना आरम्भ कर दी। वे ध्यानमग्न हो गए। ध्यान में अचल और अडिग रूप में वे प्रतिमावत् खड़े थे। वन-खण्ड में एक श्रृगाली अपने शावकों के साथ आहार की खोज में भटक रही थी। वह स्वयं भी भूखी थी और अपने शावकों की भूख की पीड़ा उसे अधिक त्रस्त कर रही थी। तभी श्रृगाली को सहसा पंथ मे रक्त की गन्ध आई। वह उसी मार्ग पर तीव्र गति से आगे बढ़ गई। मुनि सुकुमाल तो अब तक गहन ध्यान में लीन हो गए थे। भूखी श्रृगाली ने उछलकर उनकी पिंडली को पकड़ लिया। देखते ही देखते ही उसने मुनि सुकुमाल की दोनों पिंडलियाँ मांसरहित कर दी। श्रृगाली तो मांस नोचने लगी, लेकिन कायोत्सर्ग में लीन मुनि सुकुमाल का ध्यान यथावत् अविचल रहा। ज्यों-ज्यों श्रृगाली उनके कोमल तन का मांस नोचती जाती, मुनिजी का जन उसके उपकार से भरता जा रहा था। श्रृगाली के प्रत्येक प्रहार के साथ वे आध्यात्मिक-उत्थान की नवीन ऊँचाइयाँ प्राप्त करते रहे। वे एक के अनन्तर एक सोपान को पार करते हुए क्षपक-श्रेणी के शीर्ष को स्पर्श. कर गए। यह मनुष्य के परम उत्थान की अवस्था थी, जिसे मुनि सुकुमाल ने स्वयं ही अपने लिए अपने अध्यवसाय से सुलभ कर लिया था। मुनि ने अपनी जर्जरित देह का त्याग समाधिपूर्वक किया और वे नलिनीगुल्म-विमान में देव बनें। ___प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में संक्षिप्त आराधना के सम्बन्ध में सुकौशल मुनि की कथा वर्णित है साकेतपुर नगर में एक कीर्तिधर नाम का राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम सहदेवी था। उनके सुकौशल नामक राजकुमार था। राजा ने एक बार किसी आचार्य का उपदेश सुना। राजा को तीव्र वैराग्य उत्पन्न हुआ और सुकौशल का राज्याभिषेक करके स्वयं उन आचार्य के पास जाकर उन्होंने संयम ग्रहण कर लिया। वहाँ से विहार कर मुनि कीर्तिधर ग्रामानुग्राम विचरने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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