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________________ 174 साध्वी डॉ. प्रतिभा नामक ग्रन्थों में भी इनमें से कुछ कथानकों के निर्देश हमें मिल जाते है। जिनका संकेत हमने इन कथानकों के साथ ही करने का प्रयास किया है। कथानकों के इस क्रम में हमने मुख्य रूप से प्राचीनाचार्य-विरचित आराधनापताका के क्रम को ही आधार बनाया है और कथानक के अन्त में यह बताने का प्रयास किया है जैन-साहित्य में अन्यत्र कहाँ उपलब्ध है। आराधनापताका में समाधिमरण के सम्बन्ध में गाथा क्रमांक 794 में स्कन्दक आचार्य के 500 शिष्यों की कथा दी गई है, जो घाणी में पीलने पर भी उत्तमार्थ को प्राप्त हुए। श्रावस्ती नामक एक धार्मिक एवं समृद्धिशाली नगर था, जहाँ न्यायप्रिय राजा जितशत्रु राज्य करते थे। उनके अंतःपुर में सुन्दर प्रियभाषिणी धारिणी नामक महारानी थी। उनके 'पुरंदरयशा' नामक राजकुमारी एवं 'स्कन्दक' नामक राजकुमार था। दोनों को ही व्यवहारिक-शिक्षा के साथ-साथ धार्मिक-शिक्षण भी बहुत अच्छी तरह कराया गया। दोनों ही भाई-बहन में गहरा स्नेह था। युवावस्था प्राप्त होने पर पुरन्दरयशा का विवाह कुम्भकारकंटक नगर के राजा दण्डक के साथ किया गया। वहाँ पालक नामक पुरोहित मंत्री पद पर था। वह मिथ्यात्वी था और अपने आपको बहुत ज्ञानी समझता था। वह बात-बात में चर्चावाद में प्रवृत्त हो जाता और अपनी बात मनवाकर ही खुश होता। एक बार किसी आवश्यक कार्य के लिए राजा ने उसे अपने ससुराल जितशत्रु राजा के पास भेजा। पालक श्रावस्ती नगर के राजा जितशत्रु के पास पहुँचा। वहाँ विविध धर्मों के बारे में चर्चा चल रही थी। पालक ने अपने नास्तिक-मत का प्रतिपादन किया। जिसके आगे सारे विद्वान् झुक गए, परन्तु स्कन्दककुमार ने उसकी बात नहीं मानी। उसने जैन-तत्त्व के आधार पर सचोट जवाब दिया, जिसके कारण पालक को चुप रहना पड़ा व सभी स्कन्दक की बात का समर्थन करने लगे। पालक ने इसे अपना अपमान समझा व समय आने पर बदला लेने का निश्चय किया। वह मन में बदले की भावना लेकर अपने कुम्भकारकंटक नगर में लौट गया। एक-बार तीर्थंकर भगवान् मनि सव्रतस्वामी विहार करते हए श्रावस्ती नगरी में पधारे। स्कन्दककमार भी वन्द लिए पहुंचे। प्रभु की वैराग्यमय धर्मदेशना सुनकर स्कन्दककुमार को संसार से विरक्ति हो गई। उसने अपने पाँच सौ मित्र राजकुमारों के साथ भगवान् के पास दीक्षा अंगीकार कर ली। कुछ समय में ही वे सम्पूर्ण सिद्धान्तों के ज्ञाता बन गए। सभी प्रकार से योग्य जानकर प्रभु ने उन्हें आचार्य बना दिया। एक दिन आचार्य स्कन्दक मुनि ने भगवान से निवेदन किया- हे प्रभो! यदि आप आज्ञा दें, तो मैं अपने संसार-पक्ष की बहन पुरन्दरयशा और बहनोई राजा दण्डक आदि को धर्म का प्रतिबोध देने के लिए कम्भकारकंटक नगर जाना चाहता हूँ। भगवान् ने कहा 'स्कन्दक! वहाँ तुम सभी पर प्राणांतक उपसर्ग आएंगे व तुम नारकीय-यंत्रणा के शिकार बन जाओगे। यह सुनकर स्कंधक मुनि ने विचार किया- सद्धर्म-प्रचार में तो संकट उपसर्ग आते रहते हैं। उस स्थिति में अपनी 'समभाव' की साधना पर दृढ़ रहना ही हमारी सफलता है। फिर स्कंदक आचार्य ने भगवान् से पुनः पूछा- 'हे प्रभो! उन उपसर्गों के निमित्त बनंगा या विराधक ? तब भगवान ने कहा- 'तम्हारे अतिरिक्त तम्हारे सभी साथी आराधक बनेंगे एवं मोक्ष के अधिकारी बनेंगे। फिर स्कन्दकाचार्य ने कहा- 'हे प्रभो! यदि पाँच सौ साधुओं को आराधक बनाने में सहायक होऊंगा तो फिर मेरा कल्याण कैसे नहीं होगा? स्कन्दकाचार्य के ऐसा कहने पर भगवान् मौन रहे। फिर, भगवान् को वन्दन कर स्कन्दक आचार्य ने अपने पांच सौ शिष्यों के साथ कुम्भकारकटंक नगर की तरफ विहार कर दिया। इधर गुप्तचरों द्वारा पालक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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