SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 168 देहत्याग के ये दोनों उग्र रूप हैं, जबकि समाधिमरण में इस तरह मृत्युवरण का निषेध किया गया है । चीन और जापान बौद्ध धर्म को मानने वाले देशों में भी मृत्युवरण की प्रथा रही है। चीन में ऐसा मानते हैं कि जो मृत्युवरण करेगा वह भगवान् बुद्ध के रूप में अगले जन्म में अवतार लेगा । वहीं, जापान में स्वर्ग प्राप्ति की कामना से मृत्युवरण किया जाता है।' चीन में आग में झुलसकर मृत्युवरण की प्रथा है । वें लोग ज्वलनशील पदार्थो को इकट्ठा करते हैं, अग्निकुण्ड का निर्माण करते हैं, जब आग फैल जाती है, व्यक्ति उसमें कूदकर मृत्युवरण कर लेता है।, जापान में बौद्ध मन्त्र " आमीदा वुत्सु' का जाप करते हुए व्यक्ति समुद्र में डूबकर मृत्युवरण करता है। जुंशी नामक विधि में मृत्युवरण करने वाले व्यक्ति को यह आशा रहती है कि उसका मालिक उसे अगले जन्म में मिल जाएगा। मृत्युवरण के लिए प्रयुक्त समस्त उदाहरण किसी न किसी उद्देश्य प्राप्ति से सम्बन्धित है। अधिकांश वेधियों में मृत्युवरण के लिए बाह्य - विधियों का सहारा लिया जाता है, अतः मरण प्राप्त करने की सभी विधियां समाधिमरण से भिन्न हैं । फिर भी, यदि बौद्ध - परम्परा में उपलब्ध मृत्युवरण के उदाहरणों एवं बुद्ध द्वारा उनमें से कुछ पर दी गई सहमति पर विचार किया जाए, तो बहुत कम ऐसे उदाहरण मिलते हैं, जो समाधिमरण के तुलनीय हैं। कहने का अर्थ यह है कि सामान्यतः बुद्ध ने इच्छित - मृत्युवरण के लिए अपनी सहमति नह दी है, फिर भी परिस्थितिवश इसका समर्थन किया है, तथा कुछ निर्देश भी दिए हैं। संयुक्त सहायता से मारता है आत्मवध का दोष नहीं मुक्ति मिल जाती है। साध्वी डॉ. प्रतिभा इस प्रकार, हम देखते है कि जैनधर्म में वर्णित समाधिमरण और बौद्धधर्म में प्रतिपादित मृत्युवरण की परम्परा में मूलभूत अन्तर है। समाधिमरण लेने वाले व्यक्ति का अनशन उसके देह पर से मम हटाने के भाव को प्रदर्शित करता है। 1 जिस प्रकार जैन-धर्म में समाधिमरण को मोक्षप्राप्ति में सहायक माना जाता है, उसी प्रकार बौद्धों का प्राणत्याग भी निर्वाण -प्राप्ति के लिए ही किया जाता है। वह जैन-धर्म के समाधिमरण के समान ही है, क्योंकि दोनों ही परम्पराओं का यह देहत्याग निर्वाण प्राप्ति के लिए ही किया जाता है। बौद्ध-साहित्य में मिलने वाले बहुत से मृत्युवरण के उदाहरण इसकी पुष्टि भी करते हैं । अतः में उन्होंने कहा है कि जो व्यक्ति अपने को किसी बाह्य - उपकरण की और इस स्थिति में यदि वह सांसारिक मोहमाया से विरक्त रहता है, तो उसे लगता है । वह निर्वाण का अधिकारी होता है और सांसारिक कष्टों से उसे 4 3 वही, Xii पृ. 26 'संयुक्तनिकाय (III) 120, 123 'Encyclopaedia of religion Ethics Vol XII, p.n. 26 5 Encyclopaedia of religion Ethics XII, p.n. 26 वही, Xii पृ. 26 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy