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साध्वी डॉ. प्रतिभा
फांसी डालकर मरने का उपक्रम किया, लेकिन ज्यों ही वह फांसी लगाकर मरने लगी, उसी समय उसे दिव्यज्ञान की प्राप्ति हो गई और उसने मरने का यह विचार त्याग दिया।' सिंही का यह मृत्युवरण भी समाधिमरण से तुलनीय नहीं है, साथ ही फांसी लगाकर मरने के निर्णय से दिव्यज्ञान कैसे हो सकता है, यह विचारणीय है। क्योंकि समाधिमरण में जहाँ देहत्याग मात्र निर्वाण-प्राप्ति के
जाता है, वहीं थेरीगाथा के इस उदाहरण में सिंहा द्वारा किया जा रहा मृत्युवरण का प्रयास उसकी अपनी असफलता के कारण ही था, लेकिन दिव्यज्ञान की प्राप्ति के बाद उसने मृत्युवरण का त्याग कर दिया, इसका मुख्य कारण यही रहा होगा कि वह यह समझने लगी होगी कि आत्महत्या दिव्य ज्ञान की प्राप्ति का उपाय नहीं है।
संयुत्तनिकाय में गोधिका नाम की स्त्री, जो भगवान् बुद्ध की श्राविका थी, उसने असाध्य रोग से ग्रस्त होने पर रोग के निदान का प्रयत्न किया, परन्तु रोग का निदान नहीं होने के कारण जब वह इस कार्य में असफल हो गई तब उसने मृत्युवरण किया।
सम्भवतः उसने आत्ममरण बीमारी के कष्ट से नहीं बल्कि बीमारी से छुटकारा पाने के लिए किया हो, क्योंकि उसने ऐसा किया होगा, तभी भगवान बुद्ध ने उसके मृत्युवरण की प्रशंसा की तथा यह भी कहा कि उसने निर्वाण-पद को प्राप्त कर लिया है।
मेघराज कुष्ठ रोग से पीड़ित होकर बौद्ध-विहार से बाहर रहता था। उसने बुद्ध से इच्छित-मरण की आज्ञा मांगी। भगवान बुद्ध ने उसे आज्ञा दी, इच्छित-मरण की, और उसकी अनुशंसा भी की। मेघराज का यह मृत्युवरण समाधिमरण से तुलनीय है, क्योंकि कुष्ठ रोग उस समय एक असाध्य रोग था, जिसका कोई इलाज नहीं था, उस रोग से उसकी देह के अंग प्रत्यंग गल जाते थे, जिसके कारण वह अपने कार्यों का सम्पादन करने में असफल ही रहता था।
जब व्यक्ति अपने कार्यों का सम्पादन करने में असक्षम हो जाए, तो समाधिमरण ग्रहण करने की आज्ञा प्रदान की जाती है। मेघराज के भी अंग-प्रत्यंग गल चुके थे, और वह किसी भी साधना-कार्य को करने में असमर्थ ही रहा, इसी कारण ही उसने इच्छितमरण का निश्चय किया होगा और भगवान् बुद्ध भी इससे सहमत हो गए हों।
महानाम का मन ध्यान में स्थिर व एकाग्रचित्त नहीं हो पा रहा था, जिससे वह उदास रहता। बहुत लम्बे प्रयास के पश्चात् भी उसका चित्त चंचल ही बना रहा, अन्त में हताश होकर उसने पर्वत से कूदकर मृत्युवरण करने का निश्चय कर लिया। महानाम का यह मृत्युवरण किसी तरह से समाधिमरण के समकक्ष नहीं है, क्योंकि जीवन से हारकर पहाड़ से कूदकर मरना आत्महत्या के समान है तथा आत्महत्या और समाधिमरण में बहुत बड़ा अन्तर भी है।
'थेरीगाथा, 77 संयुत्तनिकाय, (III). 120
थेरगाथा, 164 4 थेरगाथा, 115
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