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प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन
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धम्मपद में वक्कलि का दृष्टान्त दृष्टव्य है जो भगवान् बुद्ध को बहुत चाहता था, जो भगवान् बुद्ध का प्रिय शिष्य था, जिसे भगवान् से अत्यधिक आसक्ति, लगाव, स्नेह था। भगवान् बुद्ध उसकी इस आसक्ति को कम करना चाहते थे। वे एक समय सोचने लगे, 'मैं इसे अपने से दूर कर दूँ, अन्यथा मेरे राग-भाव में फंसकर इसकी आत्मा पतन के गर्त में न चली जाए, इस कारण वक्कलि के कल्याण के लिए एवं उसके हित के लिए, उन्होंने उसे अपने से अलग रहकर कहीं दूर जाकर तपस्या करने का आदेश दिया। वक्कलि नहीं चाहता था कि वह उसके गुरु से दूर जाकर तप करे, इस वियोग को सहन न कर पाने के कारण वक्कलि ने मृत्युवरण कर लिया।
वक्कलि द्वारा इस प्रकार मत्यवरण करने का यह निश्चय समाधिमरण से कहीं मेल नहीं खाता है, क्योंकि वक्कलि ने मृत्यु-वरण का यह निश्चय भगवान् बुद्ध से अलग हो जाने की स्थिति में किया था। किसी से बिछोह हो जाने पर जो मृत्युवरण किया जाता है, वह समाधिमरण की कोटि में नहीं आता है, क्योंकि समाधिमरण स्वीकार करने से पहले तो साधक को राग, द्वेष, कषायों से विमुक्त होना अनिवार्य होता है, अन्यथा उसका यह प्रयास आत्महत्या के तुल्य हो जाता है, किन्तु अन्य बौद्ध-त्रिपिटक के अंगीभूत ग्रन्थ, संयुक्तनिकाय' के अनुसार यह कथा अन्य रूप में वर्णित है। वक्कलि ने असाध्य रोग से ग्रस्त होने के कारण मृत्युवरण का निश्चय किया, क्योंकि रोग के कारण वह अपनी दैनिक-चर्या को पूर्ण नहीं कर पा रहा था। उसे असहनीय कष्ट भी हो रहा था, अतः उसने देहत्याग का निश्चय किया। भगवान् बुद्ध ने उसके मृत्यवरण की दृढ़ता को प्रशंसनीय माना, तथा उसके निर्वाण-सुख की कामना भी की। तत्पश्चात् वक्कलि ने एक तीव्र धार वाले शस्त्र की सहायता से मृत्यवरण किया।
असाध्य रोगों से पीड़ित होने के कारण तथा अपने भिक्षु-जीवन की चर्चा का सम्पादन ठीक से नहीं करने के कारण वक्कलि ने मृत्युवरण का जो निश्चय किया, वह किसी दृष्टि से समाधिमरण के समकक्ष अवश्य है, क्योंकि समाधिमरण करने वाले असाध्य रोग होने की स्थिति में समाधिमरण कर सकते हैं, लेकिन यहाँ भी कुछ भिन्नता दृष्टिगत होती है। वक्कलि ने देहिक-कष्ट से ऊबकर मृत्युवरण किया, जबकि समाधिमरण में किसी तरह के कष्टों से घबराकर मृत्युवरण नहीं किया जाता है तथा न ही किसी हथियार की सहायता ली जाती है, मात्र देह-पोषण के उपक्रमों का त्याग किया जाता है, अतः यहाँ यही कहा जा सकता है कि वक्कलि द्वारा शारीरिक--कष्ट से बचने के कारण हथियार की सहायता से मृत्युवरण का जो उपक्रम किया गया, वह समाधिमरण से भिन्न ही माना जाएगा।
'थेरीगाथा' में भी मृत्युवरण के बहुत से उदाहरण दृष्टव्य हैं- इस ग्रन्थ के अनुसार सिंहा वर्षों से दिव्य ज्ञान की प्राप्ति के लिए साधना कर रही थी। सात वर्ष की साधना के उपरान्त उसके मन में चिन्तन चला कि 'मैं तो इस जीवन से मक्त होना चाहती हूँ, मैं इस जीवन से उब चकी हैं। मुझे सात वर्ष तक लगातार साधना करने के बाद भी दिव्यज्ञान की प्राप्ति नहीं हो पा रही है, अतः मैं तो अपने जीवन का अन्त कर दूं।' इस भावना में आकर तीव्र आवेग के कारण उसने गले में
धम्मपद, 381 संयुत्तनिकाय III, 123, विशेष दृष्टव्य बुद्ध – कथा पृ. 706 थेरागाथा, 77
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