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प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन
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गया है। उसके अनुसार, मृत्यु को जीवन के द्वार पर दस्तक देते हुए देखकर उससे भागने या बचने का प्रयत्न न करना ही समाधिमरण है। जैन-परम्परा में समाधिमरण के लिए मात्र शरीर के पोषण एवं संरक्षण के प्रयत्नों को छोड़ा जाता है, दूसरे शब्दों में मात्र देहासक्ति से ऊपर उठना होता है। जैन-परम्परा के अनुसार समाधिमरण का साधक जीवन और मृत्यु -दोनों की आकांक्षा से रहित होता है। वह मृत्यु को तात्कालिक रूप से बुलाता नहीं है, किन्तु जीवन के द्वार पर दस्तक दे रही मृत्यु का समभावपूर्वक स्वागत करता है। इसमें मरण किया नहीं जाता है, अपितु मरण हो जाता है। जैन-परम्परा में समाधिमरण के जिन पाँच दोषों की चर्चा की गई है, उनमें जीने की आकांक्षा और मरने की आकांक्षा दोनों को ही दोषपूर्ण माना गया है, जबकि हिन्दू परम्परा में जो तात्कालिक रूप से देहपात की बात कही गई है वह कहीं न कहीं मरने की आकांक्षा को व्यक्त करती है। मत्य को बलाना और सम्मुख उपस्थित मत्य का स्वागत करना- ये दोन स्थितियाँ है। हिन्दू-परम्परा में मृत्यु को निमंत्रण दिया जाता है, जबकि जैन-परम्परा के समाधिमरण में मृत्यु को निमंत्रण देने की कोई बात नहीं है, उसके अनुसार, यदि शरीर के लिए मृत्यु एक अनिवार्य स्थिति बन गई है, तो उससे विचलित न होते हुए मृत्यु को सहज स्वीकृति देना है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि हिन्दू-परम्परा में जो मृत्युवरण की विधियाँ मिलती हैं, वे अपनी प्रकृति की दृष्टि से जैन-परम्परा से नितान्त भिन्न रूप में हैं, क्योंकि उनमें तात्कालिक-मृत्युवरण को प्रमुखता दी गई है। संक्षेप में कहें, तो जैन-परम्परा में समाधिमरण मत्य से भागना न होकर उपस्थित मत्य को समभावपूर्वक स्वीकार करना है, जबकि हिन्दू-परम्परा में मृत्यु को निमंत्रण देकर शरीर का त्याग किया जाता है। हिन्दू-परम्परा में देहपात प्रयत्नपूर्वक होता है, जबकि जैन-परम्परा में देहपात सहज या स्वाभाविक रूप से होता है, अतः दोनों परम्पराओ में जो यह भेद रहा हुआ है उसे ध्यान में रखना आवश्यक है। (ब) बौद्ध परम्परा और मृत्युवरण -
समाधिमरण या मृत्यु-वरण की यह अवधारणा जैन धर्म के साथ-साथ भारतीय श्रमण-परम्परा की एक शाखा बौद्ध-परम्परा में भी मिलती है। इस सन्दर्भ में डॉ. रज्जनकुमार ने अपने शोधप्रबन्ध 'समाधिमरण' में अनेक बौद्ध सन्दर्भो का उल्लेख किया है। यहाँ हम मूल बौद्ध-ग्रन्थों के उन सन्दों में न जाकर पण्डित सुखलालजी संघवी के निबध "संलेखना और अहिंसा', डॉ. सागरमल जैन के विस्तृत निबन्ध 'समाधिमरण का तुलनात्मक अध्ययन' तथा डॉ. रज्जनकुमार की 'समाधिमरण' नामक पुस्तक को आधार बनाकर बौद्ध-साहित्य में कहाँ-कहाँ और किस-किस रूप में उल्लेख मिलते हैं और उनकी जैन-दर्शन के समाधिमरण से कितनी समानता और भिन्नता है, इसकी चर्चा हम अग्रिम पृष्ठों पर करेंगे।
इस सन्दर्भ में डॉ. सागरमल जैन का कहना है कि यद्यपि बुद्ध ने जैन-परम्परा के समान ही धार्मिक-आत्महत्याओं को अनुचित माना है, तथापि बौद्ध-वाङ्मय में कुछ ऐसे सन्दर्भ अवश्य हैं, जो स्वेच्छापूर्वक मृत्युवरण का समर्थन करते है। संयुत्तनिकाय में असाध्य रोग से पीड़ित भिक्षु
'जीवयं णाभिकंखेज्जा मरणं णो विपत्थए। दुहतो वि ण सज्जेज्जा जीविते मरणे तहा।। -आचारांगसूत्र, मधुकर मुनि, 8/8/232 'संथारा और अहिंसा - दर्शन और चिन्तन - द्वितीय खण्ड--पृ. 533
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