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साध्वी डॉ. प्रतिभा
जलसमाधि अग्निप्रवेश, विषभक्षण, अस्त्र-शस्त्र का उपयोग तथा ऊँचाई से नदी की धारा में कूदना या समतल जमीन से जलधारा में प्रवेश करना आदि। इसके अतिरिक्त वह आहार-त्याग को भी अपनाता है। इस प्रकार हिन्दु परम्परा में महाप्रख्यान के प्रसंग में इन सब विधियो पर प्रकाश डाला गया है।
धर्मशास्त्र के इतिहास में प्रो. काणे ने अलबरुनी के ग्रन्थ, जिसकी रचना 1030 ई. में हुई थी, से भी आत्मबलिदान के धार्मिक-उदाहरणों को स्पष्ट किया है। उनके अनुसार, धार्मिक-आत्महत्या तभी की जाती थी, जबकि व्यक्ति अपने जीवन से थक जाता था, जीवन उसे भारस्वरूप लगने लगता था। अपरिहार्य शारीरिक-स्थिति, असाध्य रोग, वृद्धावस्था, दुर्बलता आदि की स्थिति में ही आत्ममरण किया जाता था। इन्होंने कहा है कि उपर्युक्त विधि से आत्ममरण वैश्य या शूद्र जाति के लोग किया करते थे। ब्राह्मण और क्षत्रिय भी इन अवस्थाओं में आत्महत्या कर सकते थे, लेकिन उनके लिए अलग व्यवस्था थी। उनके आत्ममरण करने का समय नियत रहता था। उस नियत समय पर वे कुछ लोगों को धन देते थे और यही धन लेने वाले लोग आत्ममरण करने वाले व्यक्ति को गंगा की धारा में फेंक देते थे। इस प्रकार ब्राह्मण और क्षत्रिय-जाति के लोग गंगा के जल में समाधि लेकर प्राणों का त्याग करते थे।'
(स) हिन्दु धर्म और जैन धर्म के मृत्युवरण की तुलना -
हिन्दु धर्मग्रन्थों के उपर्युक्त विविध सन्दर्भो को देखते हुए यह कहा जा सकता हैं कि उनमें आत्महत्या का निषेध होते हुए भी विशेष परिस्थितियों में मृत्युवरण की स्वीकृति थी, फिर भी स्वेच्छापूर्वक मृत्युवरण की ऊपर वर्णित विधियों में दोनों परम्पराओं में महत्वपूर्ण अन्तर देखा जाता है। यद्यपि जैनपरम्परा और हिन्दू-परम्परा- दोनों ही परम्पराएं आत्महत्या को अनुचित मानती हैं और विशेष परिस्थिति में ही मृत्युवरण की स्वीकृति देती है, फिर भी जहाँ हिन्दू-परम्परा में जल-प्रवेश, अग्नि–प्रवेश, पर्वत की चोटी से गिरकर आदि उपायों के द्वारा मृत्युवरण की बात कहीं गई है, वहाँ जैन परम्परा में इन विधियों के द्वारा मृत्युवरण को अनुचित ही माना गया है।
रत्नकरंडकश्रावकाचार में इन विधियों के द्वारा मृत्युवरण करने वाले को मिथ्यादृष्टि कहा गया है, क्योंकि इसमें जीवन से ऊबकर ही तात्कालिक-रूप से मृत्युवरण किया जाता है और जैन-परम्परा इससे सहमत नहीं है। जैन-परम्परा में मात्र अनशन-विधि से ही देहत्याग की अनुमति दी गई है। यद्यपि हिन्दू परम्परा में भी अनशन-विधि को स्वीकार किया गया है, किन्तु उसमें प्रमुखता सदैव ही जलसमाधि, अग्निप्रवेश, गिरिपतन आदि की ही रही है। जैन-परम्परा इन सब विधियों से मृत्यु प्राप्त करने को आत्महत्या का ही एक रूप मानती है, क्योंकि इसमें कहीं-न-कहीं स्वेच्छापूर्वक तात्कालिक रूप से मृत्यु को स्वीकार किया जाता है। जैन-परम्परा में उपर्युक्त विधियों से देहत्याग को आवेशपूर्ण स्थिति मानकर उसका निषेध ही किया गया है और कहा गया है कि -इस प्रकार मृत्यु प्राप्त करने वाले निम्न योनियों में ही जन्म लेते हैं। जैन-परम्परा के अनुसार केवल सामने उपस्थित मृत्यु को समभावपूर्वक स्वीकार करने को ही संथारा या समाधिमरण माना
धर्मशास्त्र का इतिहास भाग-3 पृ. 1333-34 रत्नकरण्डक श्रावकाचार श्लोक-22
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