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________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन 2. कषायों को अल्प करना एवं शान्त करना । 3. शरीर को समाधि में स्थिर रखना, शान्त एवं स्थिर रखने का प्रयास करना । समाधिमरण लेने की विधि में साधक को इसी क्रम का पालन करना चाहिए। समाधिमरण लेने वाला साधक अपने शारीरिक - सामर्थ्य के अनुसार शरीर को कृश करने के लिए आहारादि की मात्रा को अल्प करता है। क्रोध, मान, माया तथा लोभ आदि कषायों को अत्यन्त क्षीण एवं शान्त करता है। इसके साथ ही शरीर, मन तथा वचन की प्रवृत्तियों को स्थिर कर आत्मीय गुणों को प्रकाशित करने के लिए शुभध्यान का चिन्तन करता | • आचारांगसूत्र में इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जिस भिक्षु के मन में इस प्रकार का मनोभाव उत्पन्न हो जाए कि सचमुच मैं इस समय ( साधुजीवन की आवश्यक क्रियाएँ करने के लिए) इस (अत्यन्त जीर्ण एवं अशक्त) शरीर को वहन करने में क्रमशः ग्लान एवं असमर्थ हो रहा हूँ, (ऐसी स्थिति में) वह भिक्षु क्रमशः तप आदि के द्वारा आहार को अल्प करें, फिर कषायों को स्वल्प करे और कषायों को स्वल्प करके समाधियुक्त हो, लेश्या अर्थात् अन्तःकरण की वृत्ति को शुद्ध करे । ' शरीर, कषाय दोनों से कृश बना हुआ भिक्षु समाधिमरण के लिए समुपस्थित होकर शरीर के सन्तोष के सन्ताप को शान्त कर लें । श्री मधुकर मुनिजी ने आचारांग की अपनी व्याख्या में समाधिमरण के काल को आगम के अनुसार विभाजित करते हुए इसे जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट कहा है।' उनके अनुसार, जघन्य समाधिमरण बारह पक्ष का, मध्यम बारह मास का तथा उत्कृष्ट बारह वर्ष के काल-परिमाण का होता है। इसकी न्यूनतन समयावधि बारह पक्ष की होती है। बाहर पक्ष का समय अत्यन्त अल्प होता है, जबकि बारह वर्ष की समयावधि काफी लम्बी होती है। इस लम्बे काल में साधक के समक्ष विभिन्न प्रकार की बाधाएँ उपस्थित हो सकती हैं। इस कारण, साधक को इन सबसे अपने आप को मुक्त रखकर संयम की आराधना करने का निर्देश दिया गया है। 117 समाधिमरण का पूर्ण काल बारह वर्ष का माना गया है। इन बारह वर्षों में साधक शरीर और कषाय को कृश करने के लिए विभिन्न प्रकार के तपों का अभ्यास करता है। पूज्य मधुकरजी इसका विवेचन करते हुए लिखते हैं- प्रथम चार वर्ष तक कभी उपवास, कभी बेला, कभी तेला, चोला, पंचोला - इस प्रकार, चार वर्ष तक तप किया जाता है । तत्पश्चात्, फिर चार वर्ष तक उसी तरह विचित्र तप किया जाता है। पारणा के दिन विगयरहित ( रस - रहित) आहार लिया जाता है। उसके बाद, दो वर्ष तक एकान्तर - तप किया जाता है। पारणा के दिन आयम्बिल-तप किया जाता है। ग्यारहवें वर्ष के प्रथम छः मास तक उपवास या बेला आदि तप किया जाता है, द्वितीय छः मास में विकृष्ट तप तेला, चोला आदि किया जाता है। पारणे में कुछ ऊनोदरीयुक्त आयम्बिल किया जाता है। उसके पश्चात्, बारह वर्ष में कोटि सहित लगातार आयम्बिल किया जाता है, पारणे के दिन भी आयम्बिल किया जाता है । अन्त में साधक भोजन में प्रतिदिन एक-एक ग्रास कभ करत-करते एक ग्रास (सक्थ) भोजन पर आ जाता है। इस कालावधि में जो भी संकट अथवा उपसर्ग साधक के 1 जस्सणं भिक्खुस्स एवं भवति से गिलामि च खलु अहं इमंसि समए इमं सरीरगं अणुपुव्वेण । परिवहित्तए' से 'आणुपुवेण आहारं संवटेज्जा, आणुपुव्वेण आहारं संवट्टेत्ता कसाए पत्तणुए किच्चा समाहियच्चे आचारांगसूत्र (मधुकर मुनि) - 8/6/पृ. 224 2 वही - पृ. - 294. 3 वही - पृ. -294. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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