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________________ 116 साध्वी डॉ. प्रतिभा एकान्तर-तप करना चाहिए। उसके पश्चात्, दूसरे चार वर्षों में विगयरहित भोजन करते हुए अगले दो वर्षों में एकान्तर-ता करना चाहिए। इस प्रकार दस वर्ष की अवधि पूर्ण होने पर ग्यारहवें वर्ष में छ: मास-पर्यन्त कठोर तप-साधना करना चाहिए। फिर, ग्यारहवें वर्ष के अंतिम छ: मास, बारहवें वर्ष के प्रथम छ: मास में निरन्तर आयम्बिल करके, अन्त के छ: मास में भक्त-परिज्ञा के माध्यम से आहार आदि में धीरे-धीरे कमी करना चाहिए। इसी प्रसंग में यह बताया गया है कि शरीर को कृश किए बिना सहसा ही चतुर्विध आहार का त्याग कर लेने से शरीर में असमाधि उत्पन्न होती है और उसके परिणामस्वरूप आर्तध्यान उत्पन्न होता है, जबकि संलेखना का मुख्य लक्ष्य समाधि या शान्तिपूर्वक शरीर का त्याग होता है, अतः शरीर-संलेखना इस प्रकार से करना चाहिए कि जिससे शरीर में असमाधि न हो और समभावपूर्वक देहत्याग सम्भव हो। इसी क्रम में आगे आभ्यन्तर-संलेखना के लिए कषायों के कलुष के त्याग और अध्यवसायों की शुद्धि को आवश्यक कहा गया है, क्योंकि जब तक कषायरूपी अग्नि शान्त नहीं होती, तब तक संक्लेश के भाव समाप्त नहीं होते और संक्लेशयुक्त मरण जन्म-मरण की परम्परा को आगे बढ़ाता है, तब तक समाधिमरण की साधना नहीं होती, अतः समाधिमरण की साधना में मिथ्या दुष्कृत्यरूपी जल से कषाय-अग्नि को शान्त करना आवश्यक है, इसलिए आराधना-पताका के प्रथम द्वार के अन्त में यह कहा गया है कि सोलह प्रकार की कषाय, नौ नौ कषाय, ऐन्द्रिक-विषयों की आकांक्षा, अशुभ ध्यान, अशुभ लेश्या, राग-द्वेष तथा आठ प्रकार के मदस्थानों, सात प्रकार के भयस्थानों का त्याग आवश्यक है। चूंकि ये समाधिभाव में शल्यरूप हैं, अतः साधक को समाधिमरण की साधना में कषायों का कृशीकरण ही आवश्यक है। समाधिमरण की अधिकतम अवधि बारह वर्ष की मानी गई है। यह द्वादश वर्ष का समय किस रूप में बिताया जाना चाहिए, जिससे कि व्यक्ति के काय और कषाय- दोनों ही अल्प हों। इस विषय पर श्वेताम्बर और दिगम्बर मान्य जैनग्रन्थों में पर्याप्त चिन्तन हुआ है। इस हेतु हमने आचारांग, उत्तराध्ययन, मरणविभक्ति-प्रकीर्णक, मूलाचार और भगवती-आराधना जैसे प्राचीन जैन-ग्रन्थों को अपना आधार बनाया है। आचारांगसूत्र में समाधिमरण लेने की विधि पर प्रकाश डालते हुए निम्नलिखित तीन क्रियाओं को अपनाए जाने का निर्देश दिया गया है - 1. आहार को क्रमशः संक्षेप, अर्थात् कम करना। 'चत्तारि विचित्ताइं विगईनिज्जहियाई चत्तारि। संवच्छरे य दुण्णि उ एगंतरियं च आयाम।। -आराधनापताका, गाथा 10 नाइविगिट्ठो य तवो छम्मासे परिमियं च आयामं। अण्णे वि य छम्मासे होइ विगिळं तवोकम्म।। -वृही., गाथा 3 देहम्मि अंसलिहिए सहसा धाऊहिं खिज्जमाणाहिं। जायइ अट्टज्झाणं सरीरिणो चरिमकालम्मि।। -वही,, गाथा तम्हा हु कसायग्गिं पढम उप्पज्जमाणयं चेव। इच्छा-मिच्छादुक्कउचंदणसलिलेण झंपिज्जा।। -वही.. गाथा 'तह चेव नोकसाया संलिहियत्वा परेणुवसमेण। सन्नाओ गारवाणि य इंटिय विकहाओ विसया य।। -वही, गाथा 'असुहाइं साणाई असुहा लेसाओ राग-दोसा य। - मयठाण भयट्ठाणा तिन्नि य सल्ला महल्ला य।। -आराधनापताका, गाथा 22 'आचारांगसूत्र (मधुकर मुनि) - 1/8/6/224.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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