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प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन
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जो कठिनाइयाँ आती हैं, उसकी चर्चा भगवती-आराधना की गाथा 672 और 673 में की गई है। यही चर्चा आराधना-पताका की गाथा क्रमांक 40 और 41 में भी है। चार-चार निर्यापक किस-किस प्रकार कार्य करते हैं, इस प्रकार की चर्चा भी भगवती-आराधना और आराधना-पताका में समान रूप से मिलती हैं। दोनों ग्रन्थों में निर्यापक की खोज के सन्दर्भ में यह कहा गया है कि बारह वर्ष तक सात सौ योजन क्षेत्र में योग्य निर्यापकों की खोज करता रहे। भगवती-आराधना और आराधना-पताका- दोनों ही इस सन्दर्भ में एकमत हैं। निर्यापक के गुणों को लेकर भी दोनों में समान रूप से ही चर्चा की गई है। इसी प्रकार, गीतार्थ की चर्चा भी भगवती–आराधना और आराधना-पताका में समान रूप से मिलती है। भगवती-आराधना में तो यहाँ तक कहा गया है कि गीतार्थ सुयोग्य आचार्य की खोज करते हुए यदि मार्ग में भी क्षपक का देहपात हो जाता है, तो वह आराधक की कोटि में ही माना जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि विषय-विवेचना की अपेक्षा से भगवती-आराधना और आराधना-पताका में बहुत कुछ साम्य देखा जा सकता है। पंचमहाव्रत, षट आवश्यक, 12 प्रकार के तप आदि की चर्चा दोनों में समान रूप से मिलती है। पंचमहाव्रत और उनकी पच्चीस भावनाओं की चर्चा भगवती-आराधना और आराधना-पताका में समान रूप से पाई जाती है। भगवती-आराधना में भी छठवें रात्रिभोजन का त्याग का उल्लेख भी समान रूप से पाया जाता है और उसे पंचमहाव्रतों के पालन में सहायक रूप से माना गया है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि दोनों ग्रन्थों में विषय-साम्य तो पर्याप्त मात्रा में है। दोनों ग्रन्थों में क्षामणा-द्वार भी समान रूप से ही पाया जाता है। विशेष रूप से एक अन्तर जो हमें ज्ञात होता है, वह यह है कि आराधना-पताका में विजहणा-द्वार की कोई चर्चा देखने में नहीं आई, जबकि भगवती-आराधना में विजहणा की विधि की भी विस्तार से चर्चा उपलब्ध होती है। इस विधि की चर्चा प्राचीनाचार्यकृत आराधना-पताका में तो नहीं है, किन्तु उसके पूर्ववर्ती मरणविभक्ति, मरणसमाधि आदि में मिल जाती है। साथ ही संवेगरंगशाला में भी इस विधि की चर्चा विस्तार से हुई है। यद्यपि तुलनात्मक अध्ययन के अभाव में इस विधि की चर्चा करते हुए अनुवाद में दिगम्बर विद्वानों में कहीं-कहीं अस्पष्टता देखी जाती है, किन्तु जब हम श्वेताम्बर-परम्परा के संलेखना सम्बन्धी प्राचीन ग्रन्थों से उसकी तुलना करते हैं, तो स्पष्ट रूप से उसका बोध हो जाता है।
इसी प्रकार, प्राचीनाचार्यकृत आराधना-पताका में क्षपक-श्रेणी- आरोहण के क्रम आदि में भी कहीं भी गुणस्थानों की कोई चर्चा नहीं की गई है, किन्तु भगवती-आराधना की गाथा संख्या 2087 से लेकर 2098 तक गुणस्थानों की और उनके क्रमिक आरोहण की चर्चा मिलती है, जबकि आराधना-पताका में ऐसी कोई चर्चा नहीं है। इसी आधार पर डॉ. सागरमल जैन ने भगवती-आराधना को प्राचीनाचार्यकृत इस आराधना-पताका से किंचित् परवर्ती माना है। यदि हम भगवती-आराधना को आराधना-पताका से किंचित् पूर्ववर्ती सिद्ध करना चाहते हैं, तो हमें इतना तो अवश्य मानना होगा कि भगवती-आराधना की ये अंतिम गाथाएँ बाद में प्रक्षिप्त हुई।
भगवती-आराधना और आराधना-पताका की विषय-वस्तु की इस तलनात्मक-चर्चा के पश्चात् दोनों ग्रन्थों की गाथाओं का भी तुलनात्मक अध्ययन करने का प्रयत्न किया गया है। इस
'णिज्जावया य दोण्णि वि होंति जहण्णेण कालसंसयणा। एक्को णिज्जावयओ ण होइ कइया विजिणसुत्ते।। भगवतीआराधना- 672.
'संबेगरंगशाला - गाथा, 9796, 9812 से 9818
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