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________________ साध्वी डॉ. प्रतिभा भी कहा जा सकता है कि प्राचीनाचार्यकृत आराधना-पताका को आधार बनाकर ही भगवती-आराधना की रचना हुई होगी। सामान्यतया, विद्वानों की यह अवधारणा है कि प्राचीन ग्रन्थ आकार में सक्षिप्त होते थे और परवर्ती काल में ही विस्तत ग्रन्थों के लेखन की परम्परा प्रारम्भ हई। इस बात को इस बात को लक्ष्य में रखकर यदि हम विचार करते हैं, तो यह स्पष्ट है कि जहाँ प्राचीनाचार्यविरचित आराधनापताका में मात्र 932 गाथाएं हैं, वहाँ भगवती–आराधना में 2164 गाथाएं हैं। इस प्रकार, आराधना-पताका से भगवती-आराधना की गाथाएं द्विगुणित हैं। इन्हीं कुछ आधारों पर डॉ. सागरमल जैन का यह मानना है कि प्राचीनाचार्यकृत आराधना-पताका भगवती-आराधना से पूर्ववर्ती अवश्य है और भगवती-आराधना के लिए वही उपजीव्य ग्रन्थ रहा है। आराधना-पताका और भगवती-आराधना में कौन प्राचीन है ? इसके लिए डॉ० सागरमल जैन ने एक अन्य तर्क भी दिया है। उनका कहना है कि जहाँ भगवती–आराधना में स्पष्ट रूप से गुणस्थान-सिद्धान्त की चर्चा मिलती है, वहाँ प्राचीनाचार्यकृत आराधना-पताका में कहीं भी गुणस्थानों की कोई चर्चा नहीं मिलती है। उनकी अपनी मान्यता है कि गुणस्थान-सिद्धान्त की अवधारणा परवर्तीकालीन है। वह लगभग पांचवी-छठवीं शताब्दी में अस्तित्व में आई, अतः इस आधार पर भी वे ऐसा मानते हैं कि आराधना-पताका भगवती-आराधना की अपेक्षा एक पूर्ववर्ती ग्रन्थ है। __ सर्वप्रथम यदि आराधना-पताका और भगवती-आराधना के प्रतिपाद्य विषयों की दृष्टि से तुलना करें, तो हम यह पाते हैं कि आराधना-पताका में निम्न बत्तीस द्वारों का वर्णन है- 1. संलेखना 2. परीक्षा 3. निर्यामक 4. योग्यता 5. अंगीतार्थ 6. असंविज्ञतया 7. निर्जरा 8. स्थान 9. प्रशस्तवसति 10. संस्तारक 11. चरम द्रव्यदापना 12. समाधिपान 13. गणपतिक्षपक का गणनिसर्ग 14. चैत्यवन्दन 15. आलोचना 16. व्रतोच्चारण 17. चतुःशरण 18. दुष्कृतगर्हा 19. सुकृतानुमोदना 20. जीवक्षमापना 21.स्वजनक्षमापना 22. संघक्षमापना 23. जिनवरादिक्षमापना 24. आशातना-प्रतिक्रमण 25. कायोत्सर्ग 26. शक्रस्तव 27. पापस्थानों का त्याग 28. अनशन 29. अनुशिष्टि (शिक्षा) 30. सार-कवच 31. नमस्कार तथा 32. आराधनाफल, किन्तु भगवती-आराधना में इस प्रकार के द्वारों की कोई चर्चा नहीं की गई, लेकिन क्रमिक रूप से विषय का विवेचन अवश्य किया गया है। प्रारम्भ में आराधना का स्वरूप और उसके तीन भेदों की चर्चा की है, जबकि आराधना-पताका के प्रथम द्वार में आराधना के दो और तीन भेद बताए गए हैं। दो भेदों की चर्चा करते हुए उसमें संलेखना के आभ्यन्तर और बाह्य- ऐसे दो भेद कहे गए हैं। पुनः, आभ्यन्तर-संलेखना को कषाय-संलेखना के रूप में स्वीकार किया गया है। भगवती-आराधना में भी उसकी तीसरी गाथा में आराधना के दो भेट किए गए हैं, किन्तु यहाँ पर उन भेदों के नाम सम्यक्त्व-आराधना और चारित्र-आराधना- इन दो रूपों में बताए गए हैं, किन्तु भगवती-आराधना में अन्यत्र शरीर-संलेखना और कषाय-संलेखना का 'डॉ. सागरमल जैन से व्यक्तिगत चर्चा के आधार पर, 'गुणस्थान सिद्धांत : एकविरिलेखणात्मक अध्ययन - डॉ. सागरमल जैन, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी 'संलेहणा उ दुविहा अभिंतरिया 1 य बाहिरा 2 चेव। अभिंतरा कसाएसु, बाहिरा होइ हु सरीरे ।। आराधनापताका-8. * दुविहा पुण जिणवयणे भणिया आराहणा समासेण। सम्मत्तम्मि य पढमा विदिया य हवे चरित्तंमि।। भगवतीआराधना- 3. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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