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साध्वी डॉ. प्रतिभा
दानीं शती की रचना है, अतः यह आराधना-पताका प्राचीन आचार्यकृत आराधना-पताका के नाम सेजानी जाती है।
आराधना-पताका और भगवती-आराधना- दोनों की भाषा में ही अन्तर है। जहाँ भगवती--आराधना शौरसेनी-प्राकृत में लिखी गई है, वहीं. आराधना-पताका की भाषा सामान्यतया
भागधी है। यद्यपि कहीं-कहीं महाराष्ट्री-प्राकृत का प्रभाव देखा जा सकता है, किन्तु फिर भी इसमें 'य' श्रुति प्रायः कम ही पाई जाती है, किन्तु लोप के स्थान पर अवशिष्ट स्वर ही देखा जाता
था- होई, लभई, खवओ, खवगो जैसे पाठ ही मिलते हैं। इससे हम यह तो निष्कर्ष निकाल ही सकते हैं कि कुछ परिस्थितियों में तो आराधना-पताका की भाषा भी श्वेताम्बर-परम्परा के परवर्तीकालीन आगमों की अपेक्षा भी प्राचीन प्रतीत होती है। भाषा की दृष्टि से भगवती-आराधना और आराधना-पताका- दोनों ग्रन्थों का अध्ययन करने पर ऐसा लगता है कि अर्द्धमागधी और शौरसेनी का भेद होते हुए भी दोनों में बहुत कुछ समानताएँ देखने को मिलती हैं। भगवती-आराधना में यद्यपि आराधना-पताका के पूर्व भगवती शब्द का प्रयोग देखा जाता है, जो शौरसेनी प्राकृत का रूप न होकर अर्द्धमागधी का ही रूप है, साथ ही भगवती-आराधना की प्रथम मंगल गाथा को देखें, तो उसमें मात्र आराधना शब्द का ही प्रयोग हुआ है, उसके साथ वहाँ भगवती शब्द का प्रयोग नहीं किया गया। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि दिगम्बर-परम्परा में इस ग्रन्थ के दो नाम प्रचलित हैं- भगवती-आराधना और मूल आराधना, किन्तु भगवती या मूल- ये दोनों विशेषण उसके साथ परवर्तीकाल में ही जोड़े गए हैं। मात्र भगवती-आराधना की अन्तिम प्रशस्ति के अन्त में आराधनाभगवती- ऐसा पाठ है। भगवती-आराधना की तीसरी प्रारम्भ की गाथा में भी 'भणिया आराहणा समासेण" कहकर इसका नाम आराहणा ही बताया गया है। जहाँ तक आराधना-पताका के नाम का प्रश्न है, उसकी भी प्रथम मंगल-गाथा में इसे 'पज्जंताराहणं', अर्थात् पर्यन्ताराधना ही कहा गया है, यद्यपि इसकी अन्तिम प्रशस्ति-गाथा में उसका आराधना-पताकाऐसा नाम अवश्य मिलता है। इस प्रकार, इसके अन्तिम बत्तीसवें द्वार में भी 'आराहणापड़ागं'- यह नाम दिया गया है, किन्तु इसी बत्तीसवें द्वार के अन्त मे इसमें 'पज्जंताराहणा'- यह नाम भी मिलता है। इसी प्रसंग में एक महत्वपूर्ण सूचना यह है कि इसकी उपसंहार-गाथाओं में क्रमांक 928वीं गाथा में इसके लिए 'आराहणा भगवई - यह नाम भी मिलता है। इससे ऐसा लगता है कि
सम्म नरिंद-देविंदवंदियं वंदिउं जिणं वीरं। भीमभवण्णवहणं पज्जंताराहणं वोच्छं।। दुविहा पुण जिणवयणे, भणिया आराहणा समासेण।
सम्मत्तम्मि य पढया विदिया य हवे चरित्तमि।। 3 सम्म नरिंद-देविंदवंदियं वंदिउं जिणं वीरं। भीमभवण्णवहणं पज्जंताराहणं वोच्छं।। आरधना-पताका- गाथा-1
'आराहणापडागं एयं, जो सम्ममायरइ धन्नो।
सो लहः सुद्धसद्धो, तिलोयचदु जलं किति।। गाथा- 931
' एवं तु भावियप्पा पसत्थझागो सिवुद्धलेसागो। आराहणापडागं हाई अदिग्ण सो खवओ।। गाथा-913
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