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________________ सम्यक्-दर्शन 79 लिखा है कि सम्यक्-दर्शननिष्ठ पुरुष संसार के बीजरूप अविद्या आदि दोषों का उन्मूलन नहीं कर सके, ऐसा कदापि संभव नहीं हो सकता, अर्थात् सम्यग्दर्शनयुक्त पुरुष निश्चित रूप से निर्वाण-लाभ करता है। आचार्य शंकर के अनुसार, जब तक सम्यग्दर्शन नहीं होता , तब तक राग (विषयासक्ति) का उच्छेद नहीं होता और जब तक राग का उच्छेद नहीं होता, मुक्ति संभव नहीं। सम्यक्दर्शन आध्यात्मिक-जीवन का प्राण है। जिस प्रकार चेतनारहित शरीर शव है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन से रहित व्यक्ति चलता-फिरताशव है। जैसे शव लोक में त्याज्य होता है, वैसे ही आध्यात्मिक-जगत् में यह चलशव त्याज्य है। वस्तुतः, सम्यक्दर्शन एक जीवन-दृष्टि है। बिना जीवन-दृष्टि के जीवन का कोई अर्थ नहीं रहता। व्यक्ति की जीवनदृष्टि जैसी होती है, उसी रूप में उसके चरित्र का निर्माण होता है। गीता में कहा है कि व्यक्ति श्रद्धामय है, जैसी श्रद्धा होती है, वैसा ही वह बन जाता है। असम्यक् जीवनदृष्टि पतन की ओर और सम्यक् जीवनदृष्टि उत्थान की ओर ले जाती है, इसलिए यथार्थ जीवनदृष्टि का निर्माण आवश्यक है। इसे ही भारतीय-परम्परा में सम्यग्दर्शन या श्रद्धा कहा गया है। यथार्थ जीवन-दृष्टि क्या है ? यदि इस प्रश्न पर गम्भीरतापूर्वक विचार करें, तो ज्ञात होता है कि समालोच्य सभी आचार-दर्शनों में अनासक्त एवं वीतराग जीवन-दृष्टि को ही यथार्थ जीवन-दृष्टि माना गया है। जैनधर्म में सम्यग्दर्शन का स्वरूप सम्यक्त्वका दशविधवर्गीकरण ___ उत्तराध्ययनसूत्र में सम्यग्दर्शन के, उसकी उत्पत्ति के आधार पर दस भेद किए गए हैं, जो निम्नलिखित हैं 1. निसर्ग (स्वभाव) रुचि-जो यथार्थ दृष्टिकोण व्यक्ति में स्वतः ही उत्पन्न हो जाता है, वह निसर्गरुचि-सम्यक्त्व है। 2. उपदेशरुचि-वीतराग की वाणी (उपदेश) को सुनकर जो यथार्थ दृष्टिकोण __या श्रद्धान होता है, वह उपदेशरुचि-सम्यक्त्व है। 3. आज्ञारुचि-वीतराग के नैतिक-आदेशों को मानकर जो यथार्थ दृष्टिकोण उत्पन्न होता है, अथवा तत्त्व-श्रद्धान होता है, वह आज्ञारुचि-सम्यक्त्व है। 4. सूत्ररुचि-अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य ग्रंथों के अध्ययन के आधार पर जो यथार्थ दृष्टिकोण या तत्त्व-श्रद्धान होता है, वह सूत्ररुचि-सम्यक्त्व है। 5. बीजरुचि-यथार्थता के स्वल्प बोध को स्वचिन्तन के द्वारा विकसित करना बीजरुचि-सम्यक्त्व है। 6. अभिगमरुचि-अंगसाहित्य एवं अन्य ग्रंथों का अर्थ एवं व्याख्या सहित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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