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________________ त्रिविध साधना-मार्ग 57 गति के अभाव में जल मरता है और अन्धा सम्यक् मार्ग नखोज पाने के कारण जल मरता है, वैसे ही आचरणविहीन ज्ञान पंगु के समान है और ज्ञानचक्षुविहीन आचरण अन्धे के समान है। आचरणविहीन ज्ञान और ज्ञानविहीन आचरण-दोनों निरर्थक हैं और संसाररूपी दावानल से साधक को बचाने में असमर्थ हैं। जिस प्रकार एक चक्र से रथ नहीं चलता, अकेलाअन्धा, अकेलापंगु इच्छित साध्य तक नहीं पहुँचते, वैसे ही मात्र ज्ञान अथवा मात्र क्रिया से मुक्ति नहीं होती, वरन् दोनों के सहयोग से मुक्ति होती है।46 भगवतीसूत्र में ज्ञान और क्रिया में से किसी एक को स्वीकार करने की विचारणा को मिथ्या विचारणा कहा गया है। महावीर ने साधक की दृष्टि से ज्ञान और क्रिया के पारस्परिक सम्बन्ध की एक चतुर्भंगी का कथन इसी संदर्भ में किया है 1. कुछ व्यक्ति ज्ञानसम्पन्न हैं, लेकिन चारित्र-सम्पन्न नहीं हैं। 2. कुछ व्यक्ति चारित्रसम्पन्न हैं, लेकिन ज्ञान-सम्पन्न नहीं हैं। 3. कुछ व्यक्ति न ज्ञानसम्पन्न हैं, न चारित्रसम्पन्न हैं। 4.कुछ व्यक्ति ज्ञानसम्पन्न भी हैं और चारित्र-सम्पन्न भी हैं। महावीर ने इनमें से सच्चा साधक उसे ही कहा, जो ज्ञान और क्रिया, श्रुत और शील-दोनों से सम्पन्न है। इसी को स्पष्ट करने के लिए एक निम्न रूपक भी दिया जाता है1. कुछ मुद्राएँ ऐसी होती हैं, जिनमें धातु भी खोटी है, मुद्रांकन भी ठीक नहीं है। 2. कुछ मुद्राएँ ऐसी होती हैं, जिनमें धातु तो शुद्ध है, लेकिन मुद्रांकन ठीक नहीं है। 3. कुछ मुद्राएँ ऐसी हैं, जिनमें धातु अशुद्ध है, लेकिन मुद्रांकन ठीक है। 4. कुछ मुद्राएँ ऐसी हैं, जिनमें धातु भी शुद्ध है और मुद्रांकन भी ठीक है। बाजार में वही मुद्रा ग्राह्य होती है, जिसमें धातु भी शुद्ध होती है और मुद्रांकन भी ठीक होता है। इसी प्रकार, सच्चा साधक वही होता है, जो ज्ञान–सम्पन्न भी हो और चारित्र-सम्पन्न भी हो। इस प्रकार, जैन-विचारणा यह बताती है कि ज्ञान और क्रियादोनों ही नैतिक-साधना के लिए आवश्यक हैं। ज्ञान और चारित्र-दोनों की समवेत साधना से ही दुःख का क्षय होता है। क्रियाशून्य ज्ञान और ज्ञानशून्य क्रिया-दोनों ही एकान्त हैं और एकान्त होने के कारण जैन-दर्शन की अनेकान्तवादी-विचारणा के अनुकूल नहीं हैं। वैदिक-परम्परा में ज्ञान और क्रिया के समन्वय से मुक्ति-जैन-परम्परा के समान वैदिक परम्परा में भी ज्ञान और क्रिया-दोनों के समन्वय में ही मुक्ति की सम्भावना मानी गई है। नृसिंहपुराण में भी आवश्यकनियुक्ति के समान सुन्दर रूपकों के द्वारा इसे सिद्ध किया गया है। कहा गया है कि जैसे रथहीन अश्व और अश्वहीन रथ अनुपयोगी है, वैसे ही विद्या-विहीन तप और तप-विहीन विद्या निरर्थक है। जैसे दो पंखों के कारण पक्षी की गति होती है, वैसे ही ज्ञान और कर्म-दोनों के सहयोग से मुक्ति होती है। 48 क्रियाविहीन ज्ञान और ज्ञानविहीन क्रिया-दोनों निरर्थक हैं, यद्यपि गीता ज्ञाननिष्ठा और कर्मनिष्ठा-दोनों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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