________________
56
भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
आचरण) के श्रेष्ठत्वको लेकर विवाद चलाआरहा है। वैदिक-युग में जहाँ विहित आचरण की प्रधानता रही है, वहाँ औपनिषदिक-युग में ज्ञान पर बल दिया जाने लगा। भारतीयचिन्तकों के समक्ष प्राचीन समय से ही यह समस्या रही है कि ज्ञान और क्रिया के बीच साधना का यर्थाथ तत्त्व क्या है ? जैन-परम्परा ने प्रारम्भ से ही साधनामार्ग में ज्ञान और क्रिया का समन्वय किया है। पार्श्वनाथ के पूर्ववर्ती युग में जब श्रमण-परम्परा देहदण्डनपरक तप-साधना में और वैदिक-परम्परा यज्ञयागपरक-क्रियाकाण्डों में ही साधना की इतिश्री मानकर साधना के मात्र आचरणात्मक-पक्ष पर बल देने लगी थी, तो उन्होंने उसे ज्ञान से समन्वित करने का प्रयास किया था। महावीर और उनके बाद जैन-विचारकों ने भी ज्ञान और आचरण-दोनों से समन्वित साधना-पथ का उपदेश दिया। जैन-विचारकों का यह स्पष्ट निर्देश था कि मुक्तिन तो मात्र ज्ञान से प्राप्त हो सकती है और न केवल सदाचरण से। ज्ञानमार्गी औपनिषदिक एवं सांख्य-परम्पराओं की समीक्षा करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट कहा गया कि कुछ विचारक मानते हैं कि पाप का त्याग किए बिना ही, मात्र आर्यतत्त्व (यथार्थता) को जानकरही, आत्मा सभी दुःखों से छूट जाती है, लेकिन बन्धन और मुक्ति के सिद्धान्त में विश्वास करने वाले ये विचारक संयम का आचरण नहीं करते हुए केवल वचनों से ही आत्माको आश्वासन देते हैं। 40 सूत्रकृतांग में कहा है कि मनुष्य, चाहे वह ब्राह्मण हो, भिक्षुक हो, अनेक शास्त्रों का जानकार हो, अथवा अपने को धार्मिक प्रकट करता हो, यदि उसका आचरण अच्छा नहीं है, तो वह अपने कर्मों के कारण दुःखी ही होगा।" अनेक भाषाओं एवं शास्त्रों का ज्ञान आत्मा को शरणभूत नहीं होता । मन्त्रादि विद्याभी उसे कैसे बचा सकती है? असद आचरण में अनुरक्तअपने-आपको पंडित मानने वाले लोग वस्तुतः मूर्ख ही हैं।42 आवश्यकनियुक्ति में ज्ञान और चारित्र के पारस्परिकसम्बन्ध का विवेचन विस्तृत रूप में है। उसके कुछ अंश इस समस्या का हल खोजने में हमारे सहायक हो सकेंगे। नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु कहते हैं कि आचरणविहीन अनेक शास्त्रों के ज्ञाता भी संसार-समुद्र से पार नहीं होते। मात्र शास्त्रीय ज्ञान से, बिना आचरण के कोई मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। जिस प्रकार निपुण चालक भी वायु या गति की क्रिया के अभाव में जहाज को इच्छित किनारे पर नहीं पहुँचा सकता, वैसे ही ज्ञानी आत्मा भी तप-संयमरूप सदाचरण के अभाव में मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। मात्र जान लेने से कार्यसिद्धि नहीं होती। तैरना जानते हुए भी कोई कायचेष्टा नहीं करे, तो डूब जाता है, वैसे ही शास्त्रों को जानते हुए भी जो धर्म का आचरण नहीं करता, वह डूब जाता है। जैसे चन्दन ढोने वाला चन्दन से लाभान्वित नहीं होता, मात्र भार-वाहक ही बना रहता है, वैसे ही आचरण से हीन ज्ञानी ज्ञान के भार का वाहक मात्र है, इससे उसे कोई लाभ नहीं होता। ज्ञान और क्रिया के पारस्परिक-सम्बन्ध को लोक-प्रसिद्ध अंध-पंगु-न्याय के आधार पर स्पष्ट करते हुए आचार्य लिखते हैं कि जैसे वन में दावानल लगने पर पंगु उसे देखते हुए भी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org