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उपसंहार
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सिद्धान्त प्रस्तुत करता है। सामाजिक-विषमता के निराकरण के लिए उसने अहिंसा का सिद्धान्त प्रस्तुत किया है। आर्थिक-विषमता के निराकरण के लिए वह अपरिग्रह का सिद्धान्त प्रस्तुत करता है। इसी प्रकार, बौद्धिक एवं वैचारिक-विषमता के निराकरण के लिए अनाग्रह और अनेकान्त के सिद्धान्त प्रस्तुत किए गए। ये सभी नैतिकता के बाह्य एवं सामाजिक-आधार हैं। नैतिकता का आन्तरिक-आधार तो हमारा मनोजगत् ही है। जैन आचार-दर्शन मानसिक-विषमता के निराकरण के लिए भी विशेष रूप से विचार करता है।
4.मानसिक-वैषम्य-मानसिक-विषमता मनोजगत् में तनाव की अवस्था की सूचक है। जैन आचार-दर्शन ने चतुर्विध कषायों को मनोजगत् के वैषम्य का मूल कारण माना है।क्रोध, मान, माया और लोभ-ये चारों आवेग या कषाय मानसिक-समत्व को भंग करते हैं। यदि व्यक्तिमूलक विघटनकारी तत्त्वों का मनोवैज्ञानिक-दृष्टि से विश्लेषण किया जाए, तो उनके मूल में कहीं न कहीं जैन-दर्शन में प्रस्तुत कषायों एवं नो-कषायों (आवेगों
और उप-आवेगों) की उपस्थिति ही दिखाई देती है। जैन आचार-दर्शन कषाय-त्याग के रूप में मानसिक-विषमता के निराकरण का सन्देश देता है। वह बताता है कि हम जैसे-जैसे इन कषायों के ऊपर विजय-लाभ करते हुए आगे बढ़ेंगे, वैसे ही वैसे हमारे व्यक्तित्व की पूर्णता प्रकट होगी। जैन-दर्शन में साधकों की चार श्रेणियाँ मानी गई हैं, वे इन पर क्रमिक विजय को प्रकट करती हैं। इनके प्रथम तीव्रतम रूप पर विजय पाने पर साधक में यथार्थ दृष्टिकोण का उद्भव होता है। द्वितीयमध्यमरूप पर विजय प्राप्त करने से साधक श्रावकया गृहस्थ-उपासक की श्रेणी में आता है। तृतीयअल्परूप पर विजय करने पर वह श्रमणत्व का लाभ करता है और उनके सम्पूर्ण विजय पर वह आत्मपूर्णता को प्रकट कर लेता है। कषायों की पूर्ण-समाप्ति पर एक पूर्ण व्यक्तित्व प्रकट होता है। इस प्रकार, जैन आचार-दर्शन कषाय के रूप में हमारी मानसिक-विषमताओं का कारण प्रस्तुत करता है और कषाय-जय के रूप में मानसिक-समता के निर्माण की धारणा को स्थापित करता है।
मानव-मन की अशान्ति और दुःख के कारणों के मूल में मानसिक-तनाव या मनोवेग ही हैं। मानव-मन की अशान्ति एवं उसके अधिकांशदुःख कषाय-जनित हैं, अतः शान्त और सुखी जीवन के लिए मानसिक-तनावों एवं मनोवेगों से मुक्ति पाना आवश्यक है। क्रोधादि कषायों पर विजय प्राप्त करके ही हम शान्त मानसिक-जीवन जी सकते हैं, अतः मानसिक-विषमता के निराकरण औरमानसिक-समता के सृजन के लिए हमें मनोवेगों से ऊपर उठना होगा। जैसे-जैसे हम मनोवेगों या कषाय-चतुष्क से ऊपर उठेंगे, वैसे-वैसे ही सच्ची शान्ति प्राप्त करेंगे।
इस प्रकार, जैन आचार-दर्शन जीवन से विषमताओं के निराकरण और समत्वस्थापना के लिए एक ऐसी आचार-विधि प्रस्तुत करता है , जिसके सम्यक् परिपालन से
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