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________________ 544 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन यह है कि मनुष्य में स्वतः ही त्यागवृत्ति का उदय हो और वह स्वेच्छा से सम्पत्ति-विसर्जन की दिशा में आगे बढ़े। भारतीय-परम्परा और विशेषकर जैन-परम्परा न केवल सम्पत्ति के विसर्जन की बात करती है, वरन् उसके समवितरण पर भी जोर देती है। हमारे प्राचीन साहित्य में दान के स्थान पर संविभाग या समविभाजन शब्द का प्रयोग है। महावीर का यह उद्घोष कि 'असंविभागी नहु तस्स मोक्खं' यह स्पष्ट बताता है कि जैन आचार-दर्शन आर्थिक-विषमता के निराकरण के लिए समवितरण की धारणा को प्रतिपादित करता है। जैन-दर्शन के इन सिद्धान्तों को यदि युगीन-सन्दर्भो में नवीन दृष्टि से उपस्थित किया जाए, तो समाज की आर्थिक-समस्याओं का निराकरण खोजा का सकता है। वर्तमान युग में समाज के आर्थिक-क्षेत्र में भ्रष्टाचार की जो बुराई पनप रही है, उसके मूल में भी या तो व्यक्ति की संग्रहेच्छा है या भोगेच्छा। भ्रष्टाचार केवल अभावजनित बीमारी नहीं है, वरन् वह एक मानसिक-बीमारी है, जिसके मूल में संग्रहेच्छा एवं भागेच्छा के कीटाणु हैं । यह बीमारी आवश्यकताओं के कारण नहीं, वरन् तृष्णा से उत्पन्न होती है। आवश्यकताओं की पूर्ति पदार्थ उपलब्ध करके की जा सकती है, लेकिन तृष्णा का निराकरण पदार्थों के द्वारा सम्भव नहीं है, इसीलिए जैन-दर्शन ने अनासक्ति की वत्ति को नैतिक-जीवन में प्रमुख स्थान दिया है। तृष्णाजनित विकृतियाँ केवल अनासक्ति से ही दूर की जा सकती हैं। वर्तमान युग की प्रमुख कठिनाई यह नहीं है कि हमें जीने के साधन उपलब्ध नहीं हैं, अथवा उनका अभाव है। कठिनाई यह है कि आज का मानव तृष्णा से इतना अधिक ग्रसित है कि वह एक अच्छा, सुखद एवं शान्तिपूर्ण जीवन जी नहीं सकता है। वासनाएँ ही अच्छा जीवन जीने में बाधक हैं। ___ 3. वैचारिक-वैषम्य-विभिन्न वाद और उनके कारण उत्पन्न वैचारिक-विषमता सामाजिक-जीवन का एक बड़ा अभिशाप है। वर्तमान युग में राष्ट्रों के संघर्ष के मूल में आर्थिक और राजनीतिक-प्रश्न इतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कि वैचारिक-साम्राज्यवाद की स्थापना। आज न तो राजनीतिक अधिकार-लिप्सा से उत्पन्न साम्राज्यवाद की भावना पाई जाती है और न आर्थिक-साम्राज्यों की स्थापना का प्रश्न इतना महत्वपूर्ण है, वरन् बड़े राष्ट्र अपने वैचारिक-साम्राज्यों की स्थापना के लिए प्रयत्नशील देखे जाते हैं। जैन आचारदर्शन अनेकांतवाद और अनाग्रह के सिद्धान्त के आधार पर इस वैचारिक-विषमता का निराकरण प्रस्तुत करता है। अनेकांत का सिद्धान्त वैचारिक-आग्रह के विसर्जन की बात करता है और वैचारिक-क्षेत्र में दूसरे के विचारों एवं अनुभूतियों को भी उतना ही महत्व देता है, जितना कि स्वयं के विचारों एवं अनुभूतियों को। उपर्युक्त तीनों प्रकार की विषमताएँ हमारे सामाजिक-जीवन से संबंधित हैं। जैन आचार-दर्शन इन तीनों विषमताओं के निराकरण के लिए अपने आचार-दर्शन में तीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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