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उपसंहार
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होता है। यह सामुदायिक-जीवन है। सामुदायिक-जीवन का आधार सम्बन्ध है और नैतिकता उन सम्बन्धों की शुद्धि का विज्ञान है। पारस्परिक-सम्बन्ध निम्न प्रकार के हैं - 1. व्यक्ति और परिवार, 2. व्यक्ति और जाति, 3. व्यक्ति और समाज, 4.व्यक्ति और राष्ट्र और 5. व्यक्ति और विश्व। इन सम्बन्धों की विषमता के मूल में व्यक्ति की राग-भावना ही काम करती है। सामान्यतया, राग द्वेष का सहगामी होकर काम करने लगता है, तो पारस्परिक सम्बन्धों में संघर्ष और टकराहट प्रारम्भ हो जाती है। राग के कारण मेरा' या ममत्व का भाव उत्पन्न होता है। आज के हमारे सुमधुर सामाजिक-सम्बन्धों में ये ही तत्त्व सबसे अधिक बाधक हैं। ये मनुष्य को पारिवारिक, जातीय, साम्प्रदायिक और राष्ट्रीय क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर नहीं उठने देते हैं। यही आज की सामाजिक-विषमता के मूल कारण है। अनैतिकता का मूल 'स्व' की संकुचित सीमा है। व्यक्ति जिसे अपना मानता है, उसके हित की कामना करता है और जिसे पराया मानता है, उसके हित की उपेक्षा करता है। सामाजिक-जीवन में शोषण, क्रूर व्यवहार, घृणा आदि सभी उन्हीं के प्रति किए जाते हैं, जिन्हें हम अपना नहीं मानते। यद्यपि यह बड़ा कठिन कार्य है कि हम अपनी रागात्मकता या ममत्व-वृत्ति का पूर्णतया विसर्जन कर सकें, लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि उसका एक सीमा तक विसर्जन किए बिना अपेक्षित नैतिक-जीवन का विकास नहीं हो सकता। व्यक्ति का 'स्व', चाहे वह व्यक्तिगत जीवन तक, पारिवारिक-जीवन तक या राष्ट्र की सीमा तक विस्तृत हो, स्वार्थ-भावना से ऊपर नहीं उठने देता। स्वार्थ-वृत्ति, चाहे वह परिवार के प्रति हो, या राष्ट्र के प्रति, समान रूप से नैतिकता की विरोधी सिद्ध होती है। उसके होते हुए सच्चा नैतिक-जीवन फलित नहीं हो सकता। मुनि नथमलजी लिखते हैं कि परिवार के प्रति ममत्व का सघन रूप जैसे जाति या राष्ट्र के प्रति बरती जाने वाली अनैतिकता का नियमन नहीं करता, वैसे ही जाति या राष्ट्र के प्रति ममत्व राष्ट्रों के प्रति बरती जाने वाली अनैतिकता का नियामक नहीं होता। लगता है कि राष्ट्रीय-अनैतिकता की अपेक्षा अन्तर्राष्ट्रीय-अनैतिकता कहीं अधिक है। जिन राष्ट्रों में व्यावहारिक-सच्चाई है, प्रामाणिकता है, वे भी अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में सत्य-निष्ठ और प्रामाणिक नहीं हैं। इस प्रकार, हम देखते हैं कि व्यक्ति का जीवन जब तक राग या ममत्व से ऊपर नहीं उठता, तब तक नैतिकता का सद्भाव सम्भव ही नहीं होता। रागयुक्त नैतिकता, चाहे उसका आधार राष्ट्र अथवा मानव-जाति ही क्यों न हो, सच्चे अर्थों में नैतिकता नहीं है। सच्चा नैतिक-जीवन वीतराग-अवस्था में ही सम्भव है और जैन आचार - दर्शन इसी वीतराग जीवन-दृष्टि को ही नैतिक-साधना का आधार बनाता है। यही एक ऐसा आधार है, जिस पर नैतिकता खड़ी की जा सकती है और सामाजिक-जीवन के वैषम्यों को समाप्त किया जा सकता है।
दूसरे, इन सामाजिक-सम्बन्धों में व्यक्ति का अहंभाव भी बहुत महत्वपूर्ण रूप से
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