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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
ब्राह्मण का नया अर्थ- जैन-परम्परा ने सदाचरण को ही मानवीय-जीवन में उच्चता और निम्नता का प्रतिमान माना, अर्थात् सदाचरण को ही ब्राह्मणत्व का आधार बताया। उत्तराध्ययनसूत्र के पच्चीसवें अध्याय एवं धम्मपदके ब्राह्मण-वर्ग नामक अध्याय में सच्चा ब्राह्मण कौन है, इसका सविस्तार विवेचन उपलब्ध है। विस्तारभय से उसकीसमग्र चर्चा में न जाकर केवल एक-दो पद्यों को प्रस्तुत कर ही विराम लेंगे। उत्तराध्ययनसूत्र में बताया गया है कि जो जल में उत्पन्न हुए कमल के समान भोगों में उत्पन्न होते हुए भी भोगों में लिप्त नहीं रहता, वही सच्चा ब्राह्मण है। जो राग-द्वेष और भय से मुक्त होकर अन्तर में विशुद्ध है, वही सच्चा ब्राह्मण है। धम्मपद में भी कहा है कि जैसे कमलपत्र पर पानी होता है, जैसे आरे की नोक पर सरसों का दाना होता है, वैसे ही जो कामों में लिप्त नहीं होता, जिसने अपने दुःखों के क्षय को यहीं पर देख लिया है, जिसने जन्म-मरण के भार को उतार दिया है, जो सर्वथा अनासक्त है, जो मेधावी है, स्थितप्रज्ञ है, जो सन्मार्ग तथा कुमार्ग को जानने में कुशल है और जो निर्वाण की उत्तम स्थिति को पहुँच चुका है-उसे ही मैं ब्राह्मण कहता हूँ। इस प्रकार, हम देखते हैं कि जैन एवं बौद्ध-दोनों परम्पराओं ने ही ब्राह्मणत्वकी श्रेष्ठता को स्वीकार करते हुए भी ब्राह्मण की एक नई परिभाषा प्रस्तुत की, जो कि श्रमणिकपरम्परा के अनुकूल थी। न केवल जैन-परम्परा एवं बौद्ध-परम्परा में, वरन् महाभारत में भी ब्राह्मणत्व की यही परिभाषा है। जैन-परम्परा में उत्तराध्ययनसूत्र, बौद्ध-परम्परा के धम्मपद
और महाभारत के शान्तिपर्व में सच्चे ब्राह्मण के स्वरूप का जो विवरण मिलता है, वह न केवल वैचारिक-साम्यता रखता है, वरन् उसमें शाब्दिक-साम्यता भी बहुत अधिक है, जो कि तुलनात्मक-अध्ययन की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है।
यज्ञ का नया अर्थ- जिस प्रकार समालोच्य आचार-दर्शनों में ब्राह्मण की नई परिभाषा प्रस्तुत की गई, उसी प्रकार यज्ञ को भी एक नए अर्थ में पारिभाषित किया गया । महावीर ने न केवल हिंसक यज्ञों के विरोध में अपना मन्तव्य प्रस्तुत किया, वरन् उन्होंने यज्ञ की आध्यात्मिक एवं तपस्यापरक नई परिभाषा भी प्रस्तुत की है। उत्तराध्ययनसूत्र में यज्ञ के आध्यात्मिक-स्वरूप का सविस्तार विवेचन है। बताया गया है कि तप अग्नि है, जीवात्मा अग्निकुंड है, मन-वचन और काया की प्रवृत्तियाँ ही कलछी (चम्मच) है और कर्मों (पापों) का नष्ट करना ही आहुति है, यही यज्ञ संयम से युक्त होने से शान्तिदायक और सुखकारक है। ऋषियों ने ऐसे ही यज्ञ की प्रशंसा की है। न केवल जैन-परम्परा में, वरन् बौद्ध और वैदिक-परम्पराओं में भी यज्ञ-याग की बाह्य-परम्परा का खण्डन और उसके
आध्यात्मिक-स्वरूप का चित्रण उपलब्ध है। बुद्ध ने भी आध्यात्मिक-यज्ञ के स्वरूप का चित्रण लगभग उसी रूप में किया है, जिस रूप में उसका विवेचन उत्तराध्ययनसूत्र में किया गया है। अंगुत्तरनिकाय में यज्ञ के आध्यात्मिक-स्वरूप का वर्णन करते हुए बुद्ध कहते हैं कि
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