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भारतीय आचार - दर्शन: एक तुलनात्मक अध्ययन
हैं - सर्वोच्च आदर्श नैतिक-स्तर से ऊपर उठकर आध्यात्मिक-स्तर पर पहुंचाता है। अच्छे (सात्विक) मनुष्य को सन्त (त्रिगुणातीत) बनाना चाहिए। सात्विक - अच्छाई भी अपूर्ण है, क्योंकि इस अच्छाई के लिए भी इसके विरोधी के साथ संघर्ष की शर्त लगी हुई है, ज्यों
संघर्ष समाप्त हो जाता है और अच्छाई पूर्ण बन जाती है, त्यों ही वह अच्छाई नहीं रहती, वह सब नैतिक- बाधाओं से ऊपर उठ जाती है। सत्व की प्रकृति का विकास करने के द्वारा हम उससे ऊपर उठ जाते हैं। जिस प्रकार हम काटे के द्वारा कांटे को निकालते हैं (फिर उस निकालने वाले काटे का भी त्याग कर देते हैं), उसी प्रकार सांसारिक वस्तुओं का त्याग करने के द्वारा त्याग को भी त्याग देना चाहिए। सत्व- गुण के द्वारा रजस् और तमस् पर विजय पाते हैं और उसके बाद स्वयं सत्व से भी ऊपर उठ जाते हैं । 48
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विकास की अग्रिम तथा अन्तिम कक्षा वह है, जहाँ साधक इस त्रिगुणात्मक जगत् में रहते हुए भी इसके ऊपर उठ जाता है। गीता के अनुसार, यह गुणातीत अवस्था ही साधना की चरम परिणति है, गीता के उपदेश का सार है। 49 गीता में विकास की अन्तिम कक्षा का वर्णन इस प्रकार मिलता है - जब देखने वाला (ज्ञानगुणसम्पन्न आत्मा) इन गुणों (कर्म प्रकृतियों) के अतिरिक्त किसी को कर्ता नहीं देखता और इनसे परे आत्मस्वरूप को जान लेता है, तो वह मेरे ही स्वरूप को प्राप्त हो जाता है, अर्थात् परमात्मा हो जाता है। ऐसा शरीरधारी आत्मा शरीर के कारणभूत एवं उस शरीर से उत्पन्न होने वाले त्रिगुणात्मक भावों से ऊपर उठकर गुणातीत अवस्था को प्राप्त हो जन्म, जरा, मृत्यु के दुःखों से मुक्त होकर अमृत-तत्त्व को प्राप्त हो जाता है। वह इन गुणों से विचलित नहीं होता; वह प्रकृति (कर्मों) के परिवर्तनों को देखता है, लेकिन उनमें उलझता नहीं, वह सुख - दुःख एवं लौह-कांचन को समान समझता है, सदैव आत्मस्वरूप में स्थिर रहता है। प्रिय के वियोग और अप्रिय के संयोग में तथा निन्दा - स्तुति में वह सम रहता है। उसका मन सदैव स्थिर रहता है। मानापमान तथा शत्रु-मित्र उसके लिए समान हैं। ऐसा सर्व-आरम्भों (पापकर्मों) का त्यागी महापुरुष गुणातीत कहा जाता है । तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर यह अवस्था जैन- विचारणा तेरहवें सयोगकेवली - गुणस्थान एवं बौद्ध-विचारणा की अर्हत्भूमि के समान है। यह पूर्ण वीतरागदशा है, जिसके स्वरूप के सम्बन्ध में भी सभी समालोच्य आचार - दर्शनों में काफी निकटता है ।
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त्रिगुणात्मक - देह से मुक्त होकर विशुद्ध परमात्मस्वरूप को प्राप्त कर लेना साधना की अन्तिम कक्षा है । इसे जैन-विचार में अयोगीकेवली - गुणस्थान कहा गया है। गीता में उसके समतुल्य ही इस दशा का चित्रण उपलब्ध है। गीता के आठवें अध्याय में श्रीकृष्ण कहते हैं - मैं तुझे उस परमपद, अर्थात् प्राप्त करने योग्य स्थान को बताता हूँ, जिसे विद्वज्जन
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