SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 525
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आध्यात्मिक एवं नैतिक-विकास चित्रण गीता के छठवें अध्याय में मिल जाता है। वहाँ अर्जुन शंका उपस्थित करते हैं कि है कृष्ण! जो व्यक्ति श्रद्धायुक्त (सम्यग्दृष्टि) होते हुए भी (रजोगुण के कारण) चंचल मन होने से योग की पूर्णता को प्राप्त नहीं होता, उसकी क्या गति होती है ? क्या वह ब्रह्म (निर्वाण ) की ओर जानेवाले मार्ग से पूर्णतया भ्रष्ट तो नहीं हो जाता ? 43 श्रीकृष्ण कहते हैं कि चित्त की चंचलता के कारण साधना के परम लक्ष्य से पतित हुआ ऐसा साधक भी सम्यक् श्रद्धा से युक्त एवं सम्यक् आचरण में प्रयत्नशील होने से अपने कर्मों के कारण ब्रह्म-प्राप्ति की यथार्थ दिशा में रहता है। अनेक शुभ योनियों में जन्म लेता हुआ पूर्व-संस्कारों से साधना के योग्य अवसरों को उपलब्ध कर जन्मान्तर में पापों से शुद्ध होकर अध्यवसायपूर्वक प्रयासों के फलस्वरूप परमगति (निर्वाण ) प्राप्त कर लेता है। 44 जैन- विचार से तुलना करने पर यह अवस्था पाँचवें देशविरतसम्यग्दृष्टि - गुणस्थान से प्रारम्भ होकर ग्यारहवें उपशान्तमोहगुणस्थान तक जाती है। पाँचवें एवं छठवें गुणस्थान तक श्रद्धा के सात्विक होते हुए भी आचरण में सत्वोन्मुख रजोगुण तमोगुण से समन्वित होता है, उसमें प्रथम की अपेक्षा दूसरी अवस्था में रजोगुण की सत्वोन्मुखता बढ़ती है, वहीं सत्व की प्रबलता से उसकी मात्रा क्रमशः कम होते हुए समाप्त हो जाती है। वस्तुतः, साधना की इस कक्षा में व्यक्ति सात्विक (सम्यक्) जीवन-दृष्टि से सम्पन्न होकर आचरण को भी वैसा ही बनाने का प्रयास करता है, लेकिन तमोगुण और रजोगुण के पूर्वसंस्कार बाधा उपस्थित करते हैं, फिर भी यथार्थबोध के कारण व्यक्ति में आचरण की सम्यक् दिशा के लिए अनवरत प्रयास का प्रस्फुटन होता है, जिसके फलस्वरूप तमोगुण और रजोगुण धीरे-धीरे कम होकर अन्त में विलीन हो जाते हैं और साधक विकास की एक अग्रिम श्रेणी में प्रस्थित हो जाता है। गीता के अनुसार, विकास की अग्रिम कक्षा वह है, जहाँ श्रद्धा, ज्ञान और आचरण - तीनों ही सात्विक होते हैं । यहाँ व्यक्ति की जीवनदृष्टि और आचरण दोनों में पूर्ण तादात्म्य एवं सामंजस्य स्थापित हो जाता है। उसके मन, वचन और कर्म में एकरूपता होती है। गीता के अनुसार, इस अवस्था में व्यक्ति सभी प्राणियों में उसी आत्मतत्त्व के दर्शन करता है; 45 आसक्तिरहित होकर मात्र अवश्य (नियत) कर्मों का आचरण करता है। 46 उसका व्यक्तित्व, आसक्ति एवं अहंकार से शून्य, धैर्य एवं उत्साह से युक्त एवं निर्विकार होता है। 7 उसके समग्र शरीर से ज्ञान का प्रकाश प्रस्फुटित होता है, अर्थात् उसका ज्ञान अनावरित होता है । 523 इस सत्वप्रधान भूमिका में मृत्यु प्राप्त होने पर प्राणी उत्तम ज्ञान वाले विशुद्ध निर्मल उर्ध्वलोकों में जन्म लेता है। यह विकास - कक्षा जैनधर्म के बारहवें क्षीणमोह - गुणस्थान के समान है। ज्ञानावरण का नष्ट होना इसी गुणस्थान का अन्तिम चरण है। यह नैतिक- पूर्णता की अवस्था है. लेकिन नैतिक- पूर्णता साधना की इतिश्री नहीं है। डॉ. राधाकृष्णन् कहते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy