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आध्यात्मिक एवं नैतिक-विकास
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विजय के बाद की विश्रान्ति की दशा में होता है और उसे पराजित कर उस पर अपना अधिकार जमा लेते हैं। यह ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती उपशान्त-मोह की अवस्था है, जहाँ से साधक पुनः पतित हो जाता है, लेकिन जो विजेता शत्रु-सेना को निर्मूल करता हुआ आगे बढ़ता है, उसकी विजय के बाद की विश्रान्ति उसके अग्रिम विकास का कारण बनती है। इस अवस्था को क्षीण-मोह नामक बारहवाँ गुणस्थान कहा जाता है। इस प्रकार, सातवें गुणस्थान के बाद साधक की विजय-यात्रा दो रूपों में चलती है। 8. अपूर्वकरण
यह आध्यात्मिक-साधना की एक विशिष्ट अवस्था है। इस अवस्था में कर्मावरण के काफी हलका हो जाने के कारण आत्मा एक विशिष्ट प्रकार के आध्यात्मिक-आनन्द की अनुभूति करती है। ऐसी अनुभूति पूर्व में कभी नहीं हुई होती है, अतः यह अपूर्व कही जाती है। इस अवस्था में साधक अधिकांश वासनाओं से मुक्त होता है। मात्र बीजरूप (संज्वलन) माया और लोभ ही शेष रहते हैं। शेष; अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी और प्रत्याख्यानी-कषायों की तीनों चौकड़ियाँ तथा संज्वलन की चौकड़ी में से भी संज्वलनक्रोध एवं संज्वलन-मान भी या तो क्षीण हो जाते हैं, अथवा दमित (उपशमित) कर दिए जाते हैं और इस प्रकार साधक वासनाओं से काफी ऊपर उठ जाता है, अतः न केवल वह एक आध्यात्मिक-आनन्द की अनुभूति करता है, वरन् उसमें एक प्रकार की आत्मशक्तिका प्रकटन भी हो जाता है, जिसके फलस्वरूप वह पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति और तीव्रता को कम कर सकता है और साथ ही उसके नवीन कर्मों का बंधभीअल्पकालिक एवं अल्पमात्रा मेंही होता है। इस अवसर कालाभ उठाकर, इस अवस्था में साधक उस प्रकटित आत्मशक्ति के द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों की कालस्थिति एवं तीव्रताको कम करता है तथा कर्म-वर्गणाओं को ऐसे क्रम में रख देता है, जिसके फलस्वरूप उनकासमय के पूर्व ही फलभोग किया जा सके, साथ ही वह अशुभ फल देनेवाली कर्मप्रकृतियों को शुभ फल देनेवाली कर्म-प्रकृतियों में परिवर्तित करता है एवं उनका मात्र अल्पकालीन बंध करता है। इस प्रक्रिया को जैन पारिभाषिक-शब्दों में 1: स्थितिघात, 2. रसघात, 3. गुण-श्रेणी, 4. गुण-संक्रमण और 5. अपूर्व स्थितिबंध कहा जाता है और यह समस्त प्रक्रिया अपूर्वकरण' के नाम से जानी जाती है। इस गुणस्थान का यह नामकरण इसी अपूर्वकरण नामक प्रक्रिया के आधार पर हुआहै। बंधनों से बैंधा हुआ कोई व्यक्ति उन बंधनों में से अधिकांश के जीर्ण-शीर्ण हो जाने पर प्रसन्नता का अनुभव करता है, साथ ही पहले वह जहाँ अपनी स्वशक्ति से उन बंधनों को तोड़ने में असमर्थ था, वहीं अब वह अपनी स्वशक्ति से उन शेषरहे हुए बंधनों को तोड़ने की कोशिश करता है और बंधन-मुक्ति की निकटता से प्रसन्न होता है। ठीक इसी प्रकार, इस
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