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________________ 504 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन 7. अप्रमत्त-संयत-गुणस्थान __आत्म-साधना में सजग, वे साधक इस वर्ग में आते हैं, जो देह में रहते हुए भी देहातीतभाव से युक्त हो आत्मस्वरूप में रमण करते हैं और प्रमाद पर नियन्त्रण कर लेते हैं। यह पूर्ण सजगता की स्थिति है। साधक का ध्यान अपने लक्ष्य पर केन्द्रित रहता है, लेकिन यहाँ पर दैहिक-उपाधियाँ साधक का ध्यान विचलित करने का प्रयास करती रहती हैं। कोई भी सामान्य साधक 48 मिनट से अधिक देहातीत भाव में नहीं रह पाता। दैहिक-उपाधियाँ उसे विचलित कर देती हैं, अतः इस गुणस्थान में साधकका निवास अल्पकालिक ही होता है। इस श्रेणी में कोई भी साधक एक अन्तर्मुहूर्त (48 मिनट) से अधिक नहीं रह पाता है। इसके पश्चात् भी यदि वह देहातीतभाव में रहता है, तो विकास की अग्रिम श्रेणियों की ओर प्रस्थान कर जाता है, या देहभाव की जाग्रति होने पर लौटकर पुनः नीचे के छठवें दर्जे में चला जाता है। अप्रमत्तसंयत-गुणस्थान में साधक समस्त प्रमाद के अवसरों (जिनकी संख्या 37500 मानी गई है) से बचता है। __सातवें गुणस्थान में आत्मा अनैतिक-आचरण की सम्भावनाओं को समूल नष्ट करने के लिए शक्ति-संचय करती है। यह गुणस्थान नैतिकता और अनैतिकता के मध्य होने वाले संघर्ष की पूर्व तैयारी का स्थान है। साधक अनैतिक-जीवन के कारणों की शत्रुसेना के सम्मुख युद्धभूमि में पूरी सावधानी एवं जागरूकता के साथ डट जाता है। अग्रिम गुणस्थान उसी संघर्ष की अवस्था के द्योतक हैं । आठवाँ गुणस्थान संघर्ष के उस रूपको सूचित करता है, जिसमें प्रबल शक्ति के साथ शत्रु सेना के राग-द्वेष आदिसेना-प्रमुखों के साथ ही साथ वासनारूपी शत्रु सेना को भी बहुत कुछ जीत लिया जाता है। नौवें गुणस्थान में अवशिष्ट वासनारूपीशत्रु सेना पर भी विजय प्राप्त कर ली जाती है, फिर भी उनका राजा (सूक्ष्म लोभ) छद्मरूप से बच निकलता है। दसवें गुणस्थान में उस पर विजय पाने का प्रयास किया जाता है, लेकिन यह विजय-यात्रा दो रूपों में चलती है। एक तो वह, जिसमें शत्रुसेना नष्ट करते हुए आगे बढ़ा जाता है, दूसरी वह, जिसमें शत्रु सेना के अवरोध को दूर करते हुए प्रगति की जाती है। दूसरी अवस्था में शत्रु-सैनिकों को पूर्णतः विनष्ट नहीं किया जाता, मात्र उनके अवरोध को समाप्त कर दिया जाता है, वे तितर-बितर कर दिए जाते हैं, जिन्हें जैन पारिभाषिक-शब्दावली में क्रमशः क्षायिक-श्रेणी और उपशम-श्रेणी कहा जाता है। क्षायिक-श्रेणी में मोह, कषाय एवं वासनाओं को निर्मूल करते हुए आगे बढ़ा जाता है, जबकि उपशम-श्रेणी में उनको निर्मूल नहीं किया जाता, मात्र उन्हें दमित कर दिया जाता है, लेकिन यह दूसरे प्रकार की विजय-यात्रा अहितकर ही सिद्ध होती है। वे वासनारूपीशत्रुसैनिक समय पाकर एकत्र हो, उस विजेता पर उस वक्त हमला बोल देते हैं, जबकि विजेता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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